Nazariya Article: नए वर्ल्ड ऑर्डर में भारत का परचम

Upendrra Rai
Upendrra Rai
Chairman & Managing Director, Editor-in-Chief, The Printlines | Bharat Express News Network
Must Read
Upendrra Rai
Upendrra Rai
Chairman & Managing Director, Editor-in-Chief, The Printlines | Bharat Express News Network

Sunday Special Article: एक तरफ जहां दुनिया हाल ही में नई दिल्ली में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन की सफलता और भारत की शानदार मेजबानी की चर्चा में व्यस्त है, वहीं दुनिया के दूसरे हिस्से में एक अलग ही खिचड़ी पक रही है। इस ‘खिचड़ी’ के पकने से दुनिया में एक और नया ध्रुव बनने की आशंका बढ़ गई है। दरअसल, उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग उन इन दिनों रूस के दौरे पर हैं जहां राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ हुई उनकी शिखर वार्ता हुई है। पुतिन के बुलावे पर किम जोंग अपनी विश्व प्रसिद्ध ट्रांस-साइबेरियन ट्रेन से रूस पहुंचे हैं और अभी कुछ दिन वहीं बिताएंगे। तमाम दूसरी ‘विशेषताओं’ के साथ ही इन दोनों नेताओं की एक पहचान यह भी है कि किम जोंग को उनके परमाणु दुस्साहस के लिए संयुक्त राष्ट्र के साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा और यूक्रेन पर आक्रमण के लिए पुतिन को पश्चिमी देशों की ओर से बहिष्कृत किया गया है। ऐसे माहौल में इन दोनों राष्ट्र प्रमुखों के बीच बैठक का मतलब है कि शीत युद्ध के बाद अमेरिका के नेतृत्व वाले बहुध्रुवीय विश्व के लिए अलग-थलग देशों की एक नई धुरी उभर रही है। अगर यह धुरी कोई निश्चित आकार लेती है तो यकीनी तौर पर दुनिया का बदलना तय है। निकट भविष्य में भारत के लिए भी सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि इसमें हमारे लिए खतरे भी हैं और संभावनाएं भी।

अभी फिलहाल तो दुनिया की नजरें इस बात पर हैं कि किम जोंग के रूस के दौरे से क्या निकलता है? न तो उत्तर कोरिया और न ही रूस ने दोनों नेताओं के बीच बंद कमरे में पांच घंटे चली शिखर बैठक का कोई ब्योरा जारी किया है लेकिन यह कोई रहस्य नहीं है कि दोनों एक दूसरे से क्या चाहते हैं? पिछले करीब डेढ़ साल से यूक्रेन के खिलाफ युद्ध में रूस के शस्त्रागार खाली हो चुके हैं और वो गोला-बारूद की नई आपूर्ति के लिए बेताब है। परमाणु हथियार और मिसाइल कार्यक्रम पर वर्षों के प्रतिबंधों के बाद उत्तरी कोरिया को भी राशन से लेकर ऊर्जा और सैन्य प्रौद्योगिकी तक हर चीज की जरूरत है जो रूस के पास है। वर्तमान परिदृश्य में, अमेरिका-रूस के तनावपूर्ण संबंधों के कारण उत्तरी कोरिया के लिए रूस के साथ संबंध मजबूत करना आसान हो गया है।

हालांकि, हाल के वर्षों में, चीन रूस की तुलना में उत्तर कोरिया के करीब बढ़ा है। यह इन दोनों देशों के समर्थन के कारण ही है कि उत्तर कोरिया के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के कई प्रस्ताव या तो पारित होने में विफल रहे या कई संशोधनों की आवश्यकता पड़ी। चीन क्योंकि अमेरिका और उसके सहयोगियों के प्रति बढ़ती शत्रुता के कारण विवश महसूस कर रहा है, इसलिए वह लंबे समय से रूस और उत्तर कोरिया के साथ एक मजबूत गठजोड़ बनाने की फिराक में है। रूस और उत्तर कोरिया के बीच संबंधों की मजबूती चीन के लिए इस मायने में राहत की खबर है कि यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में उस पर रूस की निर्भरता का दबाव भी कम कर सकती है और खुद उसे क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर देती है। किम जोंग की अनिश्चित प्रकृति के कारण भी उत्तर कोरिया रूस की तुलना में चीन के लिए कहीं बड़ी ढाल है क्योंकि किम जोंग के सनकीपन से निपटने के लिए चीन अमेरिका, दक्षिण कोरिया और बाकी दुनिया की मजबूरी बना रह सकता है। 

अपनी चालबाजियों से कमजोर और विकासशील देशों में जमीन हड़पने की विस्तारवादी नीतियों के कारण लगातार अलग-थलग पड़ते जाने के बाद चीन निश्चित ही इस घटनाक्रम को विश्व राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के मौके की तरह भुनाना चाहेगा। वैसे भी जी-20 शिखर सम्मेलन में भारत, मध्य-पूर्व और यूरोप के बीच आर्थिक गलियारे पर सहमति बनने के बाद उसके बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के पटरी से उतरने की पूरी संभावना बन गई है। ऐसे में चोट खाया चीन दुनिया के लिए कौन सी नई चुनौती पेश कर दे, कहा नहीं जा सकता। चीन-रूस और उत्तरी कोरिया का जो गठजोड़ बन रहा है, उसमें ईरान का भी नाम है। ईरान को हाल ही में ब्रिक्स समूह में जगह दी गई है जिसके सदस्यों में भारत और दक्षिण अफ्रीका के अलावा रूस और चीन शामिल हैं। इस बात के भी संकेत मिल रहे हैं कि देर-सबेर पाकिस्तान भी रूस-चीन समूह का हिस्सा बन सकता है।

आर्थिक उथल-पुथल और ईंधन की कीमतों में तेज वृद्धि के कारण पाकिस्तान में कुछ ऐसी आवाजें उठ रही हैं जो रूस के साथ घनिष्ठ संबंध चाहते हैं। अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद से ही पाकिस्तान के अमेरिका के साथ अच्छे संबंध नहीं रहे हैं। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान तो अपने तख्तापलट के पीछे अमेरिका के हाथ का आरोप लगाते ही रहे हैं। हालांकि यह देखने वाली बात होगी कि अगर यह गठजोड़ आकार ले भी लेता है तो यह कितने लंबे समय तक क्रियाशील रहता है। यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि शी जिनपिंग, किम जोंग उन और व्लादिमीर पुतिन वास्तविक दीर्घकालिक ठोस गठबंधन बनाने के लिए एक-दूसरे पर पर्याप्त भरोसा कर सकते हैं। यह उनके हित में हो सकता है, लेकिन तानाशाहों के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग करना जरा मुश्किल होता है।

बहरहाल, अमेरिका और चीन के बीच वैश्विक प्रभाव के लिए चल रही इस प्रतिस्पर्धा में भारत ने तेजी से ध्रुवीकृत हो रही विश्व व्यवस्था में एक विकल्प के रूप में लगातार अपनी स्थिति मजबूत की है। यूक्रेन में रूस के युद्ध पर जी-20 सदस्यों के विरोध के बावजूद भारत की सक्रिय मध्यस्थता से बनी सहमति को मौजूदा वर्ल्ड ऑर्डर में एक महत्वपूर्ण बदलाव की तरह लिया गया है जिसमें हमारी भूमिका पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा व्यापक और निर्णायक हुई है। यह बताता है कि यूक्रेन पर हमारे रुख के बावजूद अमेरिका और पश्चिम के साथ संबंधों को वास्तव में कोई नुकसान नहीं हुआ है, बल्कि इन देशों ने भारत के तर्क को जमीनी हकीकत के साथ स्वीकार किया है। आज जापान और दक्षिण कोरिया जैसे अन्य एशियाई देश चीन के सामने अपने अमेरिकी संबंधों को जहां मजबूत कर रहे हैं, वहीं भारत अपनी अलग लकीर खींच रहा है। यह शीत युद्ध के दौरान भारत के रुख की याद दिलाता है, जब भारत ने तीसरी दुनिया का प्रतिनिधित्व करने वाले गुटनिरपेक्ष आंदोलन को स्थापित करने में मदद की थी, जो दो प्रतिस्पर्धी वैचारिक गुटों से अलग खड़ा था।

जी-20 के घोषणापत्र में भी हमने स्पष्ट रूप से कहा है कि हम किसी वैश्विक शक्ति से जुड़े नहीं हैं, लेकिन सबके साथ हैं। इस रूप में भारत विकासशील देशों के लिए भी एक आकर्षक उदाहरण पेश कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के लिए एक सीट सुरक्षित करने का प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान इसी पृष्ठभूमि में आया है जब भारत खुद को ग्लोबल साउथ की आवाज के रूप में पेश कर रहा है, जो विकासशील और कम विकसित देशों के हितों का समर्थन कर रहा है। जहां एक तरफ हम ग्लोबल साउथ के मुद्दे के समर्थक हैं, वहीं ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ अमेरिका के नेतृत्व वाले क्वाड समूह का भी हिस्सा है। दूसरी ओर भारत चीन और रूस के नेतृत्व वाले शंघाई सहयोग संगठन का भी सदस्य है क्योंकि यह जुड़ाव राष्ट्रीय हितों के आधार पर हमें वैश्विक भागीदारी से जोड़ता है। इसी के साथ जी-20 शिखर सम्मेलन में बांग्लादेश को आमंत्रित करना भी हमारी कूटनीति का हिस्सा है जो उस देश में चीन के बढ़ते दखल को रोकने और पड़ोस से लगती हमारी सरहद को निष्कंटक रखने का हमारा अधिकार है। 

यह उसी प्रकार की रणनीति है जिसके तहत हमने हाल के दिनों में संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब से करीबी और रणनीतिक साझेदारियां बनाकर पाकिस्तान को अलग-थलग किया है। इसलिए यह भी महज संयोग नहीं है कि जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान बांग्लादेश के साथ ही संयुक्त अरब अमीरात को भी विशेष अतिथि के तौर पर ‘आमंत्रित’ किया गया था। जाहिर तौर पर भारत पश्चिम और रूस-चीन ब्लॉक के बीच एक नाजुक संतुलन के साथ ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ बनाए रख रहा है। जैसे-जैसे प्रमुख शक्तियां आपस में जोर-आजमाइश और प्रतिस्पर्धा करेंगी, भारत एक ऐसे देश के रूप में अधिक अनुकूल स्थिति में होगा जिसके पास न केवल इस स्पर्धा में आमने-सामने खड़े देशों के साथ संचार के विकल्प खुले होंगे, बल्कि अपनी सार्थकता और सामर्थ्य दिखाने के भी अनंत अवसर होंगे।

Latest News

डिजिटल पेमेंट में वर्ल्ड लीडर बन रहा भारत, RBI के डिप्टी गवर्नर बोले-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेजी से फैल रहा UPI

UPI network: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यूपीआई नेटवर्क का लगातार विस्‍तार हो रहा है, जिससे भारत डिजिटल पेमेंट टेक्नोलॉजी में...

More Articles Like This