Birsa Munda Death Anniversary: देश की आजादी की लड़ाई में बहुत से लोगों ने योगदान दिया. कोई गांधी जी के बताए रास्ते पर चला तो किसी ने आजादी के सिपाहियों की मदद की. लेकिन आजादी के दीवानों का नेतृत्व करने में किसी का नाम बहुत कम याद किया जाता है तो वो है बिरसा मुण्डा का. बता दें कि इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों के लड़ाई का अपने तरीके से नेतृत्व किया. आजादी के वक्त वो आदिवासियों की सशक्त आवाज थे.
एक सोच बन गए थे बिरसा मुण्डा
दरअसल, 123 साल पहले अंग्रेजों ने बिरसा मुण्डा को जहर देकर उनको मार दिया लेकिन आज भी हर आदीवासी के दिल में उनकी छवि अमर है. उन्होंने वनवासियों को ना केवल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना सिखाया बल्कि आत्मसम्मान की भी राह दिखाई. वो आदिवासियों के लिए इस प्रकार खड़े थे कि आज वों उनके द्वारा भगवान की तरह पुजे जाते है.
गरीबी में बीता बचपन
बता दें कि बिरसा मुण्डा जन्म 15 नवंबर 1875 को बंगाल प्रेसिडेंसी के रांची जिले के उलिहातू गांव में हुआ. उनका बचपन काफी गरीबी में गुजरा. उन्हें बांसुरी बजाने का बहुत शौक था. उनकी शुरुआती शिक्षा सलगा में हुई. बिरसा पढ़ाई में भी बेहद ही होशियार थे. इसलिए सलगा के स्कूल से उन्हें जर्मन मिशन स्कूल भेज दिया गया, जहां वो ईसाई बनकर बिरसा मुण्डा से बिरसा डेविड हो गए. कुछ सालों तक पढ़ाई करने के बाद उन्होंने स्कूल भी छोड़ दिया. इसके बाद 1890 में उनका पूरा परिवार ईसाईयत छोड़कर अपने आदिवासी धर्म परंपरा में वापस लौट आए.
जनआंदोलन की ओर
ये वो समय था जब उनके आदिवासी क्षेत्र में सरदार आंदोलन चल रहा था. बिरसा ने वनवासियों को उनके ही जंगल से वंचित किए जाने के विरोध किया. इसी दौरान 1893-94 में गावों की बहुत सारी जमीन को सरकार ने संरक्षित जंगल के अधीन लाने कलिए इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1882 लागू कर दिया. 1894 में सरदारी लड़ाई की मजबूत नेतृत्व के कमी के वजह से सफल नहीं हो सकी.
आदिवासियों के लिए एक संत
यहीं से बिरसा मुण्डा का उदय होने लगा. उन्होंने वनवासियों को अपने आदिवासी धर्म की ओर लौटने के साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित किया और लोगों के बीच उनकी एक संत के जैसी छवि बनने लगी. उन्होंने लोगों से ईसाई धर्म को छोड़ कर एक ही भगवान को मानने को कहा. उन्होंने कहा कि अब विक्टोरिया रानी का राज खत्म हो गया है और मुण्डा राज शुरू हो गया है. मुण्डा समाज उन्हें धरती बाबा कहने लगा था.
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इसी दौरान बिरसा मुण्डा को अंग्रेजों ने दो साल के लिए गिरफ्तार कर लिया. 1898 में जेल से छूटने के बाद बिरसा गुप्त तरीके से लोगों से मिलते रहे और उन्हें एकजुट कर ब्रिटिशों के खिलाफ हमला करते करते रहे. धीरे-धीरे यह अंग्रेजों-मुण्डा आदिवासियों के बीच सीधी लड़ाई होती गई. उनके उपर 500 रुपयों का इनाम रखा गया. इसके बाद 3 फरवरी 1900 को उन्हें गिरफ्तार कर उनपर और उनके साथियों पर मुकदमा चलाया गया. वहीं, 9 जून 1900 को उनका निधन हो गया. बताया जाता है कि अंग्रेजों ने उन्हें जहर दे दिया था और उनके बाद आंदोलन दब गया, हालांकि 1908 में कानून बन गया कि आदिवासियों से जमीन नहीं ली जाएगी.
वहीं, अब झारखंड में बिरसा मुण्डा की स्मृति में जगह जगह उनकी प्रतिमाएं लगाई गई हैं. उनके नाम पार्क, सड़कें और भवन हैं. वह राज्य में महान हस्ती की पूजे जाते हैं और उन्हें बहुत सम्मान दिया जाता है.