Puskar/Rajasthan: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पुण्य गुन दोषू।।तदपि करहिं सम विषम बिहारा। भगत अभगत ह्रदय अनुसारा।।मानत सुख सेवक सेवकाई। सेवक वैर वैरु अधिकाई।।
संत सेवा को भगवान प्रत्यक्ष अपनी सेवा मान लेते हैं। संतो के हृदय में भगवान प्रत्यक्ष रूप से विराजते हैं, इसीलिए साधु संतों को चलता फिरता तीर्थ कहा गया है। संतो के हृदय में भगवान विराजते हैं, इसीलिए संतो को भगवान का चलता फिरता मंदिर कहा गया है।
साधु संतों के दर्शन और सेवा से संत सेवा तो हो ही जाती है लेकिन उनके हृदय में विराजे हुए भगवान की भी सेवा हो जाती है। भगवान शंकर से भगवती पार्वती ने प्रश्न किया कि- इस संसार में सबसे अधिक पूजनीय कौन है? भगवान शंकर ने कहा- जितने पूजनीय हैं उसमें भगवान हरि सबसे अधिक पूजनीय हैं।
आराधनानां सर्वेषां विष्णोःआराधनं परं।भगवती पार्वती ने कहा यही आखरी बात हो गई कि और कुछ आगे भी है? तब भगवान शंकर कहते हैं कि- भगवान से भी अधिक भगवान की सेवा में लगे हुए संतजन पूजनीय है। तस्मात् परतरं देवि तदीयानां समर्चनं।। भगवान की सेवा से केवल भगवान की सेवा पूजा होती है।
लेकिन संतों की सेवा से संत की सेवा के साथ-साथ उनके हृदय में विराजमान परमात्मा अपनी सेवा भी स्वीकार कर लेते हैं। गोस्वामी श्री तुलसीदास जी महाराज दोहावली रामायण में लिखते हैं कि- अंतर्यामी गर्भगत संत अरु माता माहिं। तुलसी पूजे संत के दोऊ पूजे जाहिं।।
अगर कोई माता के उदर में बालक है और परिवार वाले लोग चाहते हैं कि वह बालक स्वस्थ और प्रसन्न रहे, तो क्या उपाय है? इसका एक ही उपाय है कि उस मां को ही स्वस्थ प्रसाद खिलाएं और प्रसन्न रखें तो उसके गर्भ में रहने वाला बालक स्वस्थ और प्रसन्न रहेगा। भगवान संतों के हृदय में विराजते हैं, अगर हम चाहते हैं कि भगवान प्रसन्न रहें तो संतों की सेवा पूजा से भगवान प्रसन्न रहते हैं।
बहुत से लोगों के मन में प्रश्न आयेगा कि- भगवान तो प्राणी मात्र के हृदय देश में विराजते हैं तो संत विशेष क्यों है? इसका प्रमाण श्रीमद्भगवद्गीता में है। ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुनतिष्ठति। भगवान शंकर कहते हैं ईश्वर तो सबके हृदय में निवास करता है। लेकिन निरंतर भजन, सुमिरण, साधन के कारण संतो के हृदय में ईश्वर प्रगट रूप से विराजमान रहता है और बाकी सबमें अप्रगट रूप से विराजमान रहता है।
पुराणों में लिखा है कि- सभी लकड़ी में अग्नि का वास है। ठंडी का महीना हो और हम सब ढेर सारी लकड़ी इकट्ठा करके बैठ जायें तो क्या हमारी ठंडी समाप्त हो जायेगी? जब तक उस लकड़ी में अग्नि प्रकट नहीं करेंगे तब तक ठंडी समाप्त होने वाली नहीं है। इसी प्रकार संतो के हृदय में प्रगट रूप से परमात्मा के विराजने के कारण संतों की सेवा, पूजा, सत्संग और सानिध्य से हम सबको शांति प्राप्त होती है।
सुख शांति के लिए ईश्वर की आराधना, और संत सेवा तन, मन, धन जैसे सम्भव हो करना चाहिए। सभी हरि भक्तों को पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धनधाम आश्रम से साधु संतों की शुभ मंगल कामना, श्री दिव्य घनश्याम धाम, श्री गोवर्धन धाम कॉलोनी, बड़ी परिक्रमा मार्ग, दानघाटी, गोवर्धन, जिला-मथुरा, (उत्तर-प्रदेश) श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवा ट्रस्ट, गनाहेड़ा, पुष्कर जिला-अजमेर (राजस्थान).