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पुष्कर/राजस्थान: परम पूज्य संत श्री दिव्य मोरारी बापू ने कहा, पुराणों में कथा आती है कि श्रीलक्ष्मी जी ने भगवान से पूँछा प्रभु भक्त लोग आपको मंदिर में भोग लगाते हैं, आप भोजन प्रसाद ग्रहण करते हैं? भगवान ने कहा भोजन ग्रहण करता हूँ. श्रीलक्ष्मी ने कहा पर थाल जैसे जाता वैसे का वैसा रखा रहता है, उसमें कुछ घटना नहीं है. अगर चार रोटी भोग लगाया गया तो दो रोटी कम हो जाय, थोड़ा सा महाप्रसाद दाल कम हो जाय, तो माना जाय कि आपने भोजन प्रसाद ग्रहण किया है. तब भगवान नारायण ने श्रीलक्ष्मीजी से कहा कि नैवेद्यं पुरतोन्यस्तं,चक्षुषा गृहणामि पद्मजे।।
भगवान ने कहा सामने पधराये हुये नैवेद्य को “चक्षुषागृहणामि” अपने नेत्रों से देखकर उसको ग्रहण कर लेता हूँ. दृष्टि पड़ने से वो प्रसाद बन जाता है. उस अन्न के सारे दोष समाप्त हो जाते हैं. वह मेरे समान हो जाता है. मनुष्य भोजन करके तृप्त होता है, देवता केवल सुगन्ध से तृप्त हो जाते हैं. भगवान को तो सुगन्ध की भी आवश्यकता नहीं है, भगवान केवल प्रसाद को देख करके ही तृप्त हो जाते हैं. इसलिए भगवान के सामने प्रसाद धराया जाता है.
श्रीलक्ष्मीजी ने भगवान से कहा कभी भोजन प्रसाद आप ग्रहण भी करते हैं? तो भगवान बताते हैं कि ग्रहण करता हूँ. कब ग्रहण करते हैं ? कैसे ग्रहण करते हैं? भगवान ने कहा लक्ष्मी जी जब हमको भोजन करने की इच्छा होती है, तो हम संतों की जिह्वा पर बैठ करके स्वाद लेते हैं। ” रसं वैष्णव जिह्वया”. श्री लक्ष्मी जी ने प्रश्न किया कि आप संत की जिह्वा पर विराज करके प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं, यह कैसे पता लगे? भगवान ने कहा संत जब प्रसाद पा करके तृप्त हो जाते हैं और उनकी जो उदान वायु (डकार) है वह भगवान कहते हैं, हमारी होती है.
इसलिए संत सेवा हो गई तो ठाकुर सेवा पूरी हो गई, ठाकुर सेवा खूब हुई पर संत सेवा नहीं हुई तो, ठाकुर सेवा पूरी नहीं मानी जायेगी। संतों की बड़ी भारी महिमा है. सभी हरि भक्तों के लिए पुष्कर आश्रम एवं गोवर्धन धाम आश्रम से साधू संतों की शुभ मंगल कामना. श्री दिव्य घनश्याम धाम, श्री गोवर्धन धाम कालोनी, दानघाटी, बड़ी परिक्रमा मार्ग, गोवर्धन, जिला-मथुरा, (उत्तर-प्रदेश) श्री दिव्य मोरारी बापू धाम सेवाट्रस्ट गनाहेड़ा पुष्कर जिला-अजमेर (राजस्थान).