State Consumer Commission: विवेकानन्द पॉलीक्लीनिक एण्ड इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साईंसेज लखनऊ में डॉक्टर की लापरवाही के चलते 10 साल पहले एक लड़की की मौत हो गई थी. जिसके बाद मृतक के परिजनों ने मेडिकल साईंसेज और उसके बाद डॉक्टरों के विरूद्ध यह परिवाद राज्य उपभोक्ता आयोग, उ0प्र0, लखनऊ में प्रस्तुत किया. जिसकी सुनवाई राज्य आयोग के प्रिसाइडिंग जज राजेन्द्र सिंह एवं विकास सक्सेना द्वारा की गई. जिसमें कोर्ट ने मृतक के परिजनों को 50 लाख देने की बात कही है.
जानिए पूरा मामला
दरअसल, कु० स्वाती रस्तोगी आयु 20 वर्ष ने यू०पी०टी०यू० का कॉमन इन्ट्रेंस टैस्ट उत्तीर्ण कर केन्द्र सरकार के अधीन संचालित सरकारी कालेज, इन्दिरा गांधी सहकारी प्रबन्ध संस्थान, राजाजीपुरम, लखनऊ में एम०बी०ए० प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था और वहीं अध्ययनरत थी और अपनी सीनियर व रूम-मेट, कु० प्रियंका यादव व एक अन्य बी. फार्मा किए लड़की कु0 स्वेता के साथ एक मकान किराये पर लेकर रह रही थी. दिनांक 18 अक्टूबर 2013 को परिवादी शाहजहाँपुर से लखनऊ आया और अपनी बेटी से मिला तो उसने बताया कि उसे जाड़ा लगकर बुखार आया था.
19 अक्टूबर 2023 को कु0 स्वाती रस्तोगी ने बताया कि उसे बुखार आ रहा है और एक डॉक्टर से दवा ले ली है और जांच के लिए खून पैथ लैब में दिया गया है. जांच में स्वाती को टाईफाइड और डेंगू होने का शक बताया गया. जिसके बाद परिजनों ने स्वाती को डॉ० मुकेश भगत को दिखाया, जिन्होंने पुनः खून जांच के लिए कहा और खून की जांच के बाद प्लेटलेट्स 97000 होना स्पष्ट हुआ.
उपचार के दौरान हुई मौत
इसके बाद परिजनों ने अपनी बेटी को लेकर विवेकानन्द पॉलीक्लीनिक एण्ड इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साईंसेज नामक अस्पताल के आकस्मिक चिकित्सा विभाग में पहुँचा. जहाँ पर डॉ० प्रदीप गुप्ता ड्यूटी पर थे. उस समय मरीज को विवेकानन्द अस्पताल में केवल एक खाली बेड पर भर्ती किया गया और यह बेड डॉ० जावेद अहमद का था अर्थात् मरीज स्वाती, डॉ० जावेद अहमद के उपचार में आ गयी. डॉ० प्रदीप गुप्ता की ड्यूटी रात 8 बजे खत्म हो गयी तब उनके स्थान पर डॉ० जिज्ञासू सिंह आये. डॉ० जावेद अहमद अस्पताल नहीं पहुँचे और इमरजेंसी में कार्यरत डॉ0 प्रदीप गुप्ता तथा डॉ० जिज्ञासू सिंह को फोन पर निर्देश देते रहे. रात 9 बजे ही मरीज की आँखें टेढ़ी हो गयीं और शरीर ऐंठने लगा, जिस पर उसे इंजेक्शन दिया गया और बेहोश होकर लेटी रही. रात 11 – 11.30 बजे डॉ० जावेद अहमद पहली बार अस्पताल आये और उन्होंने स्वाती को देखा. उन्होंने मरीज के खून की जांच और सी०टी० स्केन के लिए लिखा लेकिन अस्पताल की प्रयोगशालाऐं तब बन्द हो चुकी थीं और परिवादी को बताया गया कि ये प्रयोगशालाऐं सुबह 8.30 बजे खुलेंगीं. इसके बाद कु० स्वाती रस्तोगी की हालत बिगड़ती गयी और अन्ततः उसकी मृत्यु हो गयी. अस्पताल में बेड पेन की भी सुविधा उपलब्ध नहीं थी.
बेटी कु० स्वाती रस्तोगी की मृत्यु होने के बाद परिवादीगण की ओर से विपक्षी विवेकानन्द पॉलीक्लीनिक एण्ड इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साईंसेज और उसके डॉक्टरों के विरूद्ध यह परिवाद राज्य उपभोक्ता आयोग, उ0प्र0, लखनऊ में प्रस्तुत किया, जिसकी सुनवाई राज्य आयोग के माननीय राजेन्द्र सिंह सदस्य एवं विकास सक्सेना सदस्य द्वारा की गयी.
प्रिसाइडिंग जज राजेन्द्र सिंह ने इस मामले में अपने 135 पेज के निर्णय में सभी तथ्यों पर विचार करते हुए लिखा कि मरीज स्वाती रस्तोगी रात 7.30 बजे विवेकानन्द पालीक्लीनिक पहुँची थी और यह अस्पताल अपने को सुपर स्पेशलिटी हास्पिटल कहता है तथा उसके पास 300 – 350 शैया हैं. इतना होने के बाद भी 7.30 बजे से रात 11.30 बजे तक डॉक्टर जावेद अहमद रोगी को देखने नहीं आये. डॉ० जावेद अहमद का दायित्व था कि वह तुरन्त आते क्योंकि रोगी की हालत अत्यन्त खराब थी. यहां डॉ० जावेद अहमद से दूरभाष पर ही आकस्मिक चिकित्सा विभाग के डॉक्टरों का संवाद होता रहा. अन्ततः यह हुआ कि मरीज के प्लेटलेट्स 55000 हो गये. फिर भी अस्पताल और डॉ० जावेद अहमद द्वारा घोर लापरवाही दिखायी गयी. मरीज की हालत खराब होती गयी और फिर उसे अगली रात/सुबह 3.30 बजे फिनारगन इंजेक्शन दिया गया, जिसके लगने के बाद वह शान्त हो गयी. रात में ऐसा होने पर जब डॉक्टर की खोज की गयी तो वह सोते हुए मिले तब तक देर हो चुकी थी और मरीज कु० स्वाती रस्तोगी की मृत्यु हो गयी.
अस्पताल में इमरजेंसी होने पर प्रयोगशालाऐं न खोलना अपने आप में चिकित्सीय उपेक्षा का उदाहरण है, क्योंकि रोगी के खून की जांच नहीं की गयी और ना ही सी०टी० स्केन हुआ तथा मरीज के पिता से कहा गया कि वह रातभर इंतजार करें, यह अमानवीय है. मरीज स्वाती की मृत्यु का कारण ” डेंगू शाक सिन्ड्रोम कार्डियो रेस्पीरेटिरी अरेस्ट ” दिखाया गया. प्लेटलेट्स 55000 होते हुए मृत्यु होना सन्देह पैदा करता है कि क्या फिनारगन इंजेक्शन के दुष्प्रभाव से मृत्यु हुई या अन्य किसी कारण से फिनारगन इंजेक्शन डॉक्टर की निगरानी में ही दिया जाता है और कोई भी दुष्प्रभाव होने पर एण्टीडोज दी जाती है.
इस मामले में मृत्यु होने के बाद परिवादी ने अपनी बेटी से सम्बन्धित समस्त इलाज के पर्चे व रिपोर्ट मांगी तो अस्पताल ने नहीं दीं. उसके द्वारा कई विभागों और अधिकारियों को पत्र लिखे गये और अन्ततः एक पत्र मेडिकल काउन्सिल आफ इण्डिया को लिखा तब मेडिकल काउन्सिल आफ इण्डिया ने विपक्षी अस्पताल को निर्देश दिया कि वे परिवादी को सारे अभिलेख दे दें तब उसे अभिलेख दिये गये. मेडिकल काउन्सिल आफ इण्डिया ने Indian Medical Council Regulations, 2002 के नियम 1.3.2 में स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि कोई रोगी चिकित्सीय अभिलेख मांगता है तो उसे 72 घण्टे के अन्दर उपलब्ध कराने चाहिए. क्या विवेकानन्द पालीक्लीनिक को इन नियमों की जानकारी नहीं है?
इस सम्बन्ध में मा0 उच्च न्यायालय इलाहाबाद की खण्ड पीठ लखनऊ ने समीर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में दिनांक 12-09-2014 को निर्णय दिया और न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह ने अपने निर्णय में उपरोक्त रेगूलेशन का सन्दर्भ देते हुए कहा है कि अभिलेख तुरन्त दिये जाने चाहिए.
प्रिसाइडिंग जज ने इस मामले में डॉक्टर द्वारा ली जाने वाली हिप्पोक्रेटिक शपथ और रेस इप्सा लाक्युटर के सिद्धान्त पर प्रकाश डालते हुए यह पाया कि इस मामले में डॉ० जावेद अहमद एवं अस्पताल दोषी हैं, क्योंकि इमरजेंसी के डॉक्टर केवल डॉ० जावेद अहमद से प्राप्त टेलीफोनिक निर्देशों का पालन कर रहे थे.
यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि कु० स्वाती रस्तोगी आयु 20 वर्ष का विपक्षी अस्पताल में दिनांक 23-10-2013 को सायं 700 बजे आकस्मिक चिकित्सा अनुभाग में लायी गयी थी, जहाँ पर डॉ० प्रदीप कुमार गुप्ता अस्पताल में थे. डॉ० प्रदीप कुमार गुप्ता का आकस्मिक चिकित्सा विभाग में रहने के समय दोपहर 2 बजे से रात 8 बजे तक का था. विपक्षी सं0-2 डॉ0 प्रदीप कुमार गुप्ता ने अपने लिखित कथन में कहा है कि रोगी का परीक्षण वरिष्ठ चिकित्सक, विपक्षी सं0-4 (डॉ0 जावेद अहमद) ने किया और अस्थायी लक्षणों के आधार पर डेंगू फीवर और हाइपोटेंशन पाया, लेकिन उस समय विपक्षी सं0-4 उपस्थित नहीं थे, तब उन्होंने मरीज का परीक्षण किस प्रकार किया, क्योंकि वह रात में 11 बजे अस्पताल पहुँचे थे. इससे स्पष्ट है कि डॉ० जावेद अहमद, कु० स्वाती रस्तोगी के आने के समय अस्पताल में मौजूद नहीं थे. साक्ष्य और लिखित कथन से स्पष्ट है कि कु० स्वाती रस्तोगी को जो बेड आवंटित किया गया था वह डॉ० जावेद अहमद का था अर्थात् कु० स्वाती रस्तोगी, डॉ० जावेद अहमद की पेशेण्ट थी. उन्हें तुरन्त वहाँ पर आना चाहिए था, क्योंकि कु० स्वाती रस्तोगी की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी.
डॉ0 प्रदीप कुमार गुप्ता ने यह स्वीकार किया है कि पहले के उपचार सम्बन्धी अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि कु० स्वाती रस्तोगी डेंगू से पीड़ित थी और उसके प्लेटलेट्स काउण्ट 0.97 लाख प्रति घनमीटर आ चुके थे. उन्होंने यह भी बताया कि उनके स्थान पर डॉ० जिज्ञासू सिंह आये और उन्हें अपना चार्ज दिया और वह चले गये. अब कु० स्वाती रस्तोगी, डॉ० जिज्ञासू सिंह के निरीक्षण और परीक्षण के अन्तर्गत थी और उन्हें यह मालूम था कि मरीज की हालत अत्यन्त दयनीय है. इसके बावजूद भी वहाँ पर कोई भी वरिष्ठ डॉक्टर मौजूद नहीं था. डॉ० प्रदीप कुमार गुप्ता और डॉ० जिज्ञासू सिंह ने केवल फोन पर डॉ० जावेद अहमद से बात की और उन्होंने आने की आवश्यकता भी नहीं समझी. इस प्रकार कु० स्वाती आकस्मिक चिकित्सा विभाग में आने से लेकर रात 11 बजे तक डॉ० प्रदीप कुमार गुप्ता और मुख्यतः डॉ० जिज्ञासू सिंह के अन्तर्गत रही.
सारा उपचार टेलीफोन के माध्यम से चल रहा था, जिसे हम लोग मुहावरे के रूप में कहते हैं, “लगी से पानी पिलाना” हास्पिटल के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक, निदेशक अथवा प्रशासक हास्पिटल का यह दायित्व था कि वे ऐसे आकस्मिक मामले में तुरन्त डॉक्टर को मौके पर बुलाते, जबकि विवेकानन्द पॉलीक्लीनिक का दावा है कि वह इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साईंसेज है और वह 300 से अधिक शैया वाला अस्पताल है, लेकिन यह जानते हुए कि डेंगू के मरीज को अविलम्ब आवश्यक चिकित्सा प्रदान करनी चाहिए, क्योंकि उसके प्लेटलेट्स में निरन्तर गिरावट आ रही थी, किन्तु इसके बाबजूद भी उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया और न ही सम्बन्धित डॉ० जावेद अहमद को बुलाया. जब डॉ० जावेद अहमद अस्पताल में आये तब तक मरीज की हालत और ज्यादा बिगड़ चुकी थी. विपक्षी सं0-3 ने बताया कि रात 9 बजे रोगी को सामान्य टॉनिक और क्लॉनिक सीजर हुआ, जिसका सामान्य अर्थ कड़ापन और झटके आने से होता है.
इस मामले में यह तथ्य प्रकाश में आया कि जब मरीज को प्रयोगशाला भेजा गया तब उनका स्टाफ साथ नहीं गया और तब परिवादी ने पाया कि रात होने के कारण प्रयोगशालाऐं बन्द हो चुकी थीं. यदि विपक्षी सक्षम नहीं था तब मरीज को अपने यहाँ भर्ती ही नहीं करना था और उसे एस०जी०पी०जी०आई० को सन्दर्भित कर देना चाहिए था, जो उसने नहीं किया और इस कारण एक निर्दोष को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. रोगी की सुरक्षा उसके उपचार से सम्बन्धित अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है और इस पर प्रत्येक अस्पताल या डॉक्टर को ध्यान देना चाहिए कि यदि उन्होंने रोगी को अपने यहाँ भर्ती किया है तो जिस डॉक्टर के अन्तर्गत वह है, उस डॉक्टर का परम कर्तव्य और दायित्व है कि वह तुरन्त रोगी को देखे और अविलम्ब उसका आवश्यक उपचार शुरू कर दें, रोगी की सुरक्षा और गुणवत्ता सुधार के सम्बन्ध में समय- समय पर कार्य हुआ है.
इस मामले में रोगी की सुरक्षा और गुणवत्ता सुधार के मामले में कोई ध्यान नहीं दिया गया. मृत्यु प्रमाण पत्र, जो जारी किया गया है, उसमें फैब्राइल थ्रोम्बोसाइटोपेनिया डेंगू फीवर अंकित है. फैब्राइल थ्रोम्बोसाइटोपेनिया संक्रमण से होने वाली स्थिति है, जिसका डेंगू एक सामान्य संक्रमण है. इसमें रक्तश्राव भी होता है, लेकिन ऐसा कोई अभिलेख नहीं है, जो यह दिखाता हो कि मरीज को रक्तश्राव हुआ हो.
फैब्राइल थ्रोम्बोसाइटोपेनिया तब उत्पन्न होता है जब प्लेटलेट्स काउण्ट 20000 से नीचे जाते हैं. वर्तमान मामले में यह बताया गया कि प्लेटलेट्स 55000 थे, जब रोगी की मृत्यु हुई. मृत्यु के पहले विपक्षी के यहाँ की कोई भी पैथालॉजी जांच, खून की जांच या सी०टी० स्केन की जांच आख्या नहीं है. यह कहा गया कि रोगी के पिता ने सी०टी० स्केन कराने या आई0सी0यू0 में ले जाने की अनुमति नहीं दी. आप अस्पताल हैं और आप डॉक्टर हैं. अगर आपके अनुसार यह आवश्यक था तो डॉक्टर का यह कर्तव्य है कि मरीज की जान को बचाने के लिए जो भी उचित बने वह करें. यह बहाना कि मृतका के पिता ने सी0टी0 स्केन कराने या आई0सी0यू0 में ले जाने की अनुमति नहीं दी, से आप अपने उत्तरदायित्व और ली गयी शपथ से नहीं बच सकते.
अतः इन समस्त परिस्थितियों को देखने से यही स्पष्टी होता है कि विपक्षी की ओर से गम्भीर चिकित्सीय लापरवाही बरती गयी है. जहाँ तक विपक्षी सं0-2 व 3 का सम्बन्ध है, वे इमरजेंसी के डॉक्टर थे और उन्होंने जो कुछ किया वह विपक्षी सं0-4 के निर्देशन में किया. अतः विपक्षी सं0-4 को चिकित्सीय उपेक्षा के लिए इस मामले में दोषी पाया जाता है. विपक्षी सं0-1 व 4 चिकित्सीय उपेक्षा और सेवा में कमी के लिए उत्तरदायी हैं.
प्रिसाइडिंग जज ने सभी तथ्यों पर विचार करते हुए निम्नलिखित आदेश पारित किया-
1. विपक्षी सं0-1 व 4 को संयुक्त व पृथक-पृथक रूप से आदेश दिया जाता है कि वे परिवादीगण को मानसिक, शारीरिक यन्त्रणा व आर्थिक क्षति के मद में 50.00 लाख रू0 और इस पर दिनांक 24-10-2013 से 12 प्रतिशत वार्षिक साधारण ब्याज इस परिवाद के निर्णय के 30 दिन के अन्दर अदा करे और यदि यह धनराशि इस परिवाद के निर्णय के 30 दिन के अन्दर अदा नहीं की जाती है तब ब्याज की दर 15 प्रतिशत वार्षिक होगी, जो दिनांक 24-10-2013 से इसके वास्तविक भुगतान की तिथि तक देय होगी.
2. विपक्षी सं0-1 व 4 को संयुक्त व पृथक-पृथक रूप से आदेश दिया जाता है कि वे परिवादीगण को वाद व्यय के मद में 01.00 लाख रू0 और इस पर दिनांक 24-10-2013 से 12 प्रतिशत वार्षिक साधारण ब्याज इस परिवाद के निर्णय के 30 दिन के अन्दर अदा करें और यदि यह धनराशि इस परिवाद के निर्णय के 30 दिन के अन्दर अदा नहीं की जाती है, तब ब्याज की दर 15 प्रतिशत वार्षिक होगी, जो दिनांक 24-10-2013 से इसके वास्तविक भुगतान की तिथि तक देय होगी.
3. अनुतोष सं0-ग के सम्बन्ध में विचार करते हुए विपक्षी सं0-1 व 4 को संयुक्त व पृथक-पृथक रूप से आदेश दिया जाता है कि वे परिवादीगण को चिकित्सीय उपेक्षा और सेवा में कमी के मद में 10.00 लाख रू0 और इस पर दिनांक 24-10-2013 से 12 प्रतिशत वार्षिक साधारण ब्याज इस परिवाद के निर्णय के 30 दिन के अन्दर अदा करें और यदि यह धनराशि इस परिवाद के निर्णय के 30 दिन के अन्दर अदा नहीं की जाती है तब ब्याज की दर 15 प्रतिशत वार्षिक होगी, जो दिनांक 24-10-2013 से इसके वास्तविक भुगतान की तिथि तक देय होगी.
4. विपक्षी सं0-5 बीमा कम्पनी, विपक्षी सं0-1 व 4 के प्रति बीमा धनराशि की प्रतिपूर्ति में उस धनराशि तक ही अदायगी करेगी जिस धनराशि तक के लिए विपक्षी सं0-1 व 4, विपक्षी सं0-5 के यहाँ बीमित हैं.
यदि विपक्षी सं0-1 व 4 इस परिवाद के निर्णय का अनुपालन निर्णय के दिनांक से 30 दिन के अन्दर करने में असमर्थ रहते है तब परिवादीगण को यह अधिकार होगा कि वह विपक्षीगण के व्यय पर इस न्यायालय के समक्ष निष्पादन वाद प्रस्तुत करें.