टाना भगत आंदोलन के वंशज आज भी दर-दर की ठोकरें खाने को हैं विवश

Shivam
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Reporter The Printlines (Part of Bharat Express News Network)
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झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है। अनुमानित तौर पर इसकी कुल जनसंख्या का 26 प्रतिशत हिस्सा आदिवासियों का है। इस समुदाय की सांस्कृतिक पहचान, अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर ही बिहार का विभाजन हुआ और झारखंड का गठन किया गया। राज्य तो बन गया, लेकिन अभी तक आदिवासी समाज को उसका सांविधानिक हक प्राप्त नहीं हुआ है। आदिवासी अस्मिता का प्रश्न झारखंड-गठन की मूल अवधारणा का प्रमुख अंग होते हुए भी राज्य बनने के बाद हाशिये पर खिसकता चला जा रहा है। दरअसल, आदिवासी समुदाय की मूलभूत आवश्यकताओं और सुविधाओं को दरकिनार कर इसके विकास की परिकल्पना की गई। इसलिए आदिवासी समाज विकासशील झारखंड में आज भी उपेक्षित महसूस करता है।
रोजगार के लिए बड़े पैमाने पर पलायन, कुपोषण, अशिक्षा, जंगलों की कटाई, आदिवासियों के हिस्से के जल पर अधिकार, लघु वनोपजों या लघु खनिज से प्राप्त होने वाली आय का हिस्सा आदिवासियों के आर्थिक उन्नयन की जगह राज्य सरकार की तिजोरी भरने के अभिनव प्रयोगों पर व्यय करने की नीतियां, जनसंख्या व क्षेत्रफल के हिसाब से राज्य के संसाधनों से विशेष समुदायों को अलग रखने वाली नीति समेत कई चुनौतियां आज भी इस समुदाय के समक्ष खड़ी हैं। हालांकि, विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के जरिये उनके जीवन में आहिस्ता आहिस्ता बदलाव आया है, पर समाज के अन्य वर्गों की अपेक्षा यह समुदाय अब भी पीछे है। झारखंड को अस्तित्व में आए 24 वर्ष होने को हैं, पर आज भी यह समुदाय अपने ही प्रदेश में बेगाना सा बना हुआ है। आदिवासियों के वोट तो सभी दलों को चाहिए, पर इनकी मूल समस्याओं से जूझने को कोई तैयार नहीं दिख रहा है।
सन् 1951 और 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर गौर करें, तो आदिवासी समुदाय की आबादी में लगभग नौ प्रतिशत की कमी देखी जा सकती है। झारखंड की जनसांख्यिकीय बड़ी तेजी से बदल रही है। शहर ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में भी आदिवासियों की जमीन पर गैर-आदिवासी कब्जा जमा रहे हैं। बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हो रही है। विकास के नाम पर आदिवासियों को वहां से भगाया जा रहा है। मानव तस्करी के कई गिरोह झारखंड में सक्रिय हैं। रोजगार दिलाने के नाम पर आदिवासियों का भयंकर शोषण हो रहा है। सबसे बड़ी बात, टाना भगत आंदोलन के वंशज आज भी दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हैं। दुर्योग से आदिवासियों के ये मुद्दे आज किसी भी राजनीतिक दल के घोषणापत्र या संकल्प-पत्र का हिस्सा नहीं हैं।
केंद्र ने आदिवासियों की सुरक्षा और उनकी पारंपरिक व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए ‘पेसा कानून’ बनाया, लेकिन झारखंड में यह अभी भी अप्रभावी है। इसके पीछे क्या कारण है. इस पर न तो सरकार कुछ कहने को तैयार है और न ही विपक्ष के पास ऐसे मुद्दों को उठाने के लिए समय है। केंद्र की योजनाओं के अलावा झारखंड सरकार ने उन संस्थाओं के साथ श्रम समझौते की एक पहल शुरू की है. जो यहां से श्रमिकों को लेकर बाहर जाती हैं। यह प्रयास सराहनीय है, लेकिन इतने भर से आदिवासियों का भला होना संभव नहीं है। आदिवासियों के मूल एजेंडे को, जिसमें जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर शामिल हैं, राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र या संकल्प-पत्र में शामिल करें। आदिवासी समुदाय को केंद्र में रखकर झारखंड के विकास की योजना तैयार की जाए। उनकी समृद्ध भाषा और साहित्यिक परंपरा को सरकारी नीतियों में महत्व मिले। धुमकुरिया-घोटुल जैसी सामाजिक संस्थाओं को जीवित किया जाए।
आदिवासियों की जनसंख्या तेजी से घट रही है, जो चिंता का विषय है। झारखंड में हो रहे जनसांख्यिकीय बदलाव पर केंद्र और राज्य सरकार मिलकर एक आयोग का गठन करें और उसकी सिफारिशों को यथाशीघ्र लागू किया जाए। जल, जंगल और जमीन के नारे को चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल करने के बजाय आदिवासी हितों की रक्षा के तौर पर अपनाए जाने की जरूरत है। झारखंड के सर्वांगीण व सार्वभौमिक विकास के लिए आदिवासी समाज का जुड़ाव और सरकार के प्रति उनमें अपनत्व का भाव पैदा करने की आवश्यकता है।

– अशोक भगत
सचिव, विकास भारती

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