Saturday Special Article: हाल ही में चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में आए नतीजे किसी सियासी कमाल से कम नहीं हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान में रिवाज बरकरार रखते हुए मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जिस तरह नई रीत चलाई है, उसने विपक्ष के साथ-साथ कई राजनीतिक पंडितों को भी चौंकाया है। नतीजे दर्शाते हैं कि उत्तर भारत की हिंदी पट्टी में पीएम मोदी की लोकप्रियता न केवल अक्षुण्ण है, बल्कि अब किंतु-परंतु जैसे सवालों से भी मुक्त हो चुकी है। यह स्थिति इतनी निर्णायक है कि इसने प्रधानमंत्री पद के लगातार तीसरे कार्यकाल के लिए नरेन्द्र मोदी की दावेदारी को स्पष्ट रूप से मजबूत कर दिया है। 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले बीजेपी के पास अब 12 राज्यों – उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, गोवा, असम, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकारें हैं और चार में वो सत्तारूढ़ गठबंधन में है। इन बीजेपी शासित राज्यों में देश का 58 फीसद हिस्सा है, जिसमें 57 फीसद आबादी शामिल है।
तीनों राज्यों में स्पष्ट बहुमत के साथ मिली जीत में कई स्थानीय कारणों की भी हिस्सेदारी है, लेकिन इसका केन्द्रीय तत्व निश्चित ही प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और उनके प्रति मतदाताओं का अटूट विश्वास है। प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन में जनकल्याणकारी योजनाओं का जिस व्यापक पैमाने पर क्रियान्वयन हुआ है, वो चुनाव-दर-चुनाव उनके लिए एक ऐसी ताकतवर ढाल का काम कर रहा है जिस पर विपक्षी रणनीतियों के तमाम अस्त्र-शस्त्र बेअसर हो जाते हैं। मुफ्त राशन, गरीबों-किसानों-महिलाओं को नकद राशि, किफायती आवास-शौचालय-सिलेंडर जैसी योजनाएं महंगाई, बेरोजगारी और कृषि क्षेत्र में बढ़ रही चुनौतियों की चुनावी काट साबित हुई हैं। आम तौर पर धारणा यह है कि जहां इन योजनाओं का उचित क्रियान्वयन मतदाताओं को सरकार से जोड़ता है, वहीं इसमें किसी भी तरह की कोताही या लीकेज असंतोष की वजह भी बनता है। लेकिन एक के बाद एक चुनावी नतीजे इस बात को रेखांकित करते हैं कि गरीब मतदाताओं और श्रमिक वर्ग पर मोदी का प्रभाव कायम है। जिस बीजेपी को अपने शुरुआती वर्षों में अगड़ी जातियों की समर्थक और शहरी पार्टी के रूप में देखा जाता था, वो पिछले नौ-दस वर्षों में समाज के हर वर्ग में अपनी पैठ बना चुकी है।
जनकल्याण की नीतियों के साथ चुनावी रणनीतियों के मेल ने भी बीजेपी की जीत का मार्ग प्रशस्त किया। नीतियों के बल पर एक बड़ा सामाजिक गठबंधन तैयार करने के साथ ही बीजेपी ने अपने कई वरिष्ठ केन्द्रीय नेताओं और सांसदों को उम्मीदवार के रूप में खड़ा करके और बूथ स्तर तक फैली अपनी सांगठनिक क्षमता का भरपूर उपयोग कर जीत प्राप्त की। कैडर आधारित बीजेपी की तुलना में कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा हमेशा कमजोर रहा है। राजस्थान का ही उदाहरण लें तो गहलोत सरकार की जनकल्याण की तमाम योजनाओं के बावजूद स्थानीय सत्ता-विरोधी लहर और कानून-व्यवस्था तथा महिलाओं की सुरक्षा जैसे मुद्दों को प्रमुखता के साथ मतदाताओं तक पहुंचाने की दौड़ में बीजेपी का संगठन कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा मजबूत स्थिति में था। मध्य प्रदेश में भी लगभग दो दशक की सरकार के खिलाफ एक तरह की थकान के बावजूद संगठन ने सरकार से लगातार संचार और समन्वय बनाए रखकर कैडर को निराश नहीं होने दिया। छत्तीसगढ़ में भी राज्य के संगठन में कथित कमजोरी के बावजूद बूथ स्तर के प्रबंधन पर ध्यान केन्द्रित कर बीजेपी ने नतीजों को अपने पक्ष में कर लिया।
नतीजों से संकेत मिलता है कि ओबीसी वोट अपनी ओर खींचने के लिए विपक्ष की राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना की मांग का हिंदी पट्टी के राज्यों में बहुत कम प्रभाव पड़ा है। अपेक्षित लाभ के विपरीत, ऐसा लगता है कि इससे प्रति-ध्रुवीकरण हुआ है, खासकर आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में, जहां बीजेपी ने अधिकांश आदिवासी सीटें जीती हैं। बस्तर और सरगुजा संभाग, जो छत्तीसगढ़ विधानसभा में 26 विधायकों को भेजते हैं, वहां 2018 के चुनाव में कांग्रेस को कुल 26 में से 25 सीटें मिली थीं। इस बार कांग्रेस यहां केवल तीन सीटें ही जीत सकी। इसके विपरीत, संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने की मांग करने वाले महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने से बीजेपी को महिला वोटों का सहारा मिलता दिखा है, खासकर मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना योजना के लिए। आदिवासी सीटों की तरह, अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में भी बीजेपी के पक्ष में झुकाव देखा गया। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में 98 अनुसूचित सीटों में से बीजेपी ने 57 सीटें जीतीं, जबकि कांग्रेस 40 सीटें जीतने में सफल रही। 2018 में बीजेपी ने इनमें से 32 और कांग्रेस ने 45 सीटें जीती थीं।
अतीत के विधानसभा चुनावों के विपरीत, जहां मतदाता विधानसभा और लोकसभा के चुनावों के बीच अंतर करते आए थे, वहां बीजेपी ने आम चुनाव में अपने पक्ष में काम करने वाले कारकों से विधानसभा चुनावों में भी सकारात्मक परिणाम प्राप्त कर लिए। जैसे पिछली बार 2018 में जब इन राज्यों में विधानसभा चुनाव में स्थानीय लीडरशिप को चेहरा बनाया था, तो सभी में बीजेपी हार गई थी। लेकिन इस बार बीजेपी ने तीनों राज्यों में कोई चेहरा नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा और विधानसभा चुनावों को एक तरह से लोकसभा चुनाव का रंग देकर सफलता प्राप्त कर ली। विधानसभा चुनावों के दौरान बीजेपी ने पूरा प्रचार नरेन्द्र मोदी के इर्द-गिर्द रखा और मोदी ने खुद को एक ऐसे नेता के रूप में पेश करके कांग्रेस पर चुनावी गारंटियों को लेकर तीखी आलोचना की, जिसने आम आदमी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने द्वारा किए गए वादों को पूरा किया है। बीजेपी की जीत में प्रधानमंत्री के परिश्रम को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। चुनाव की घोषणा के बाद उन्होंने राजस्थान और मध्य प्रदेश में 14-14 और छत्तीसगढ़ में पांच रैलियों को संबोधित किया। इसके साथ ही राजस्थान में दो और मध्य प्रदेश में एक विशाल रोड शो भी किया और इन हाई वोल्टेज अभियान ने बीजेपी के पक्ष में चुनावी हवा बनाने का काम किया।
इसके अलावा अमित शाह के योगदान ने इस अभियान को वो धार दे दी जिसकी काट विपक्ष ढूंढे नहीं ढूंढ सका। अमित शाह ने खुद आगे बढ़कर छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश – दो ऐसे राज्यों की जिम्मेदारी ली जहां बीजेपी की जीत की संभावनाएं लगातार नगण्य होती जा रही थीं। अपनी मेहनत और सधी राजनीति से उन्होंने छत्तीसगढ़ में थके-हारे संगठन और मध्य प्रदेश में भीषण अंदरूनी कलह से जूझ रही पार्टी की स्थिति का जायजा लिया और उसी के अनुसार रणनीति तय की। पहले बूथ स्तर से लेकर राज्यों के मुख्यालयों तक कार्यकर्ताओं में बीजेपी के सरकार बना लेने का विश्वास पैदा किया और फिर उन्हें मैदान में उतारकर खुद भी कई दर्जन रैलियां और रोड शो किए। राजस्थान में भी नेतृत्व के कठिन प्रश्न को अमित शाह ने नियंत्रित रखकर बाकी दावेदारों के एकजुट प्रयासों को सुनिश्चित किया।
अब एकजुट रहने की चुनौती विपक्ष के सामने है जिसके लिए ये नतीजे किसी झटके से कम नहीं हैं। खासकर कांग्रेस जिसके लिए इंडिया गठबंधन में मुश्किल स्थिति बन गई है। हिंदी पट्टी का यह चुनाव बीजेपी बनाम कांग्रेस का मामला था और इस तरह की हार से गठबंधन में शामिल क्षेत्रीय दलों को अब अपनी शर्तों पर चलाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। कांग्रेस के पास केवल तीन राज्य बचे रह गए हैं – हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना। ऐसे में कांग्रेस को यह स्वीकार करने के लिए पर्याप्त विनम्र होना होगा कि उत्तर में अब उसका कोई व्यापक जनाधार नहीं बचा है। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कहा कि पार्टी अस्थायी असफलताओं से उबरेगी और गठबंधन में अपने सहयोगियों के साथ लोकसभा चुनाव के लिए पूरी तैयारी करेगी, लेकिन इतना तय है कि बाकी दल अब गठबंधन की धुरी होने के उसके दावे को आसानी से नहीं मानेंगे।
इस बीच दक्षिण में अपने एकमात्र गढ़ कर्नाटक को कांग्रेस के हाथों खोने के कुछ ही महीनों बाद बीजेपी ने जिस तरह जीत की हैट्रिक का स्वाद चखा है, उस पर प्रधानमंत्री मोदी की टिप्पणी भी दिलचस्प है। जीत के बाद कार्यकर्ताओं का आभार जताते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि कुछ लोग पहले से ही कह रहे थे कि तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत केन्द्र में उनके तीसरे कार्यकाल की गारंटी है। नरेन्द्र मोदी की यह गारंटी विपक्ष के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है। वैसे भी लड़ाई अब सही मायने में 2024 के लिए है और ताजा सूरतेहाल में ऐसा लगता है कि बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने की कोई भी उम्मीद रखने के लिए विपक्ष को अब अपनी क्षमता से कहीं अधिक प्रयास करने के साथ ही किसी चमत्कार की भी आवश्यकता होगी।