Mudde Ki Parakh: विपक्षी पार्टियों के नए गठबंधन “इंडिया” ने 14 टीवी एंकर्स के कार्यक्रमों के बहिष्कार का एलान किया है। इन पार्टियों के नेताओं का कहना है कि 9 चैनलों के ये एंकर नफरत फैलाते हैं और उनके खिलाफ पक्षपात करते हैं। इस फैसले के बाद जनता को लेकर मीडिया की जवाबदेही और लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर नई बहस छिड़ गई है। जहां एक तरफ विपक्षी नेता और कुछ नागरिक संगठन पत्रकारिता के सिद्धांतों और स्तर को बनाए रखने में मीडिया की कथित नाकामी के खिलाफ एक जायज प्रतिक्रिया बता रहे हैं, वहीं पत्रकारों के अलावा बीजेपी ने इसे प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताया है।
इस लेख में हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि ये बहिष्कार किस तरह अलोकतांत्रिक है और जनता को लेकर जवाबदेही की भावना एवं प्रेस के सम्मान को एक ठेस है। सबसे पहले जानने की कोशिश करते हैं कि हम किस जवाबदेही और प्रेस के सम्मान की बात कर रहे हैं और ये लोकतंत्र के लिए क्यों जरूरी हैं। हम ये भी समझेंगे कि विरोध के सुरों को दबाने का ये प्रयास कैसे जन सरोकार के प्रहरी के तौर पर मीडिया की भूमिका को कमज़ोर करने के साथ ही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर लोगों के भरोसे को घटाता है। मैं ऐसे कुछ तर्कों का जवाब देने की भी कोशिश करूंगा जो इस बायकॉट को विरोध और स्व-नियमन का एक तरीका बता रहे हैं। इसके साथ ही मैं कुछ ऐसे सुझाव भी पेश करूंगा जिन पर अमल करके “इंडिया” गठबंधन मीडिया के साथ अपने संबंधो को तय कर सकता है और उसे जवाबदेह ठहरा सकता है।
जनता को लेकर जवाबदेही और प्रेस का सम्मान
लोकतंत्र में जवाबदेही का मतलब है अफसरशाही और संस्थाएं जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं और उन्हें नाकामियों या गलत बर्ताव के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। प्रेस का सम्मान इसलिए आवश्यक है क्योंकि वो जनता से जुड़े मुद्दों पर सूचना, विश्लेषण, आलोचना और बहस के ज़रिए इस जवाबदेही को सुनिश्चित करती है। भ्रष्टाचार, सत्ता के दुरुपयोग और मानवाधिकारों के उल्लंघन को उजागर करना मीडिया का फर्ज है।
जनता के प्रति जवाबदेही और प्रेस का सम्मान शासन में आम जनता की भागीदारी को बढ़ाते हैं और उसे अधिकारों और आज़ादियों के प्रति जागरूक बनाते हैं। मीडिया जनता के लिए विचारों और पसंद-नापसंद के इजहार का सबसे अहम ज़रिया है। इसके माध्यम से लोग नीतियों और फैसलों को प्रभावित कर सकते हैं, व्यवस्था में पारदर्शिता सुनिश्चित कर सकते हैं और अपने नुमाइंदों से सवाल पूछ सकते हैं। जवाबदेही और मीडिया को लेकर सम्मान के बिना लोकतंत्र सिर्फ एक ऐसी औपचारिकता है जहां चुनाव तो होते हैं लेकिन जनता की कोई आवाज़ नहीं होती। ऐसे लोकतंत्र में सत्ता चंद निरंकुश लोगों की बपौती बनकर रह जाती है। लोकतंत्र का चौथा खंभा कमज़ोर हो तो सूचनाओं को तोड़ा-मरोड़ जा सकता है या दबाया जा सकता है। ऐसे लोकतंत्र में विरोध को या तो घोंट दिया जाता है और दंडित किया जाता है।
क्यों पत्रकारों का बहिष्कार जनता को लेकर जवाबदेही और प्रेस के प्रति सम्मान पर आघात है?
इस तर्क के कई आधार हैं। सबसे पहले तो बहिष्कार का मतलब है विरोध के सुरों को दबाना। इस फैसले से विपक्षी पार्टियों ने इन 14 पत्रकारों से उनके नजरिए को चुनौती देने का हक तो छीना है, खुद को भी उनके सामने अपनी नीतियों और क्रियाकलापों पर अपना रुख रखने और आलोचनाओं का जवाब देने से महरूम किया है। इससे एकतरफा बयानिया तैयार होता है जिसमें विपक्षी पार्टियों और उनके समर्थकों का प्रतिनिधित्त्व नज़रअंदाज़ होता है। बहिष्कार से दर्शक भी सभी पक्षों की राय जानने के अपने हक से वंचित हुए हैं। सभी पक्ष सुनकर ही वो सही फैसला कर सकते हैं। बहिष्कार ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विविधता को चोट पहुंचाई है।
दूसरी बात ये है कि पत्रकारों पर पाबंदी लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर मीडिया को कमजोर करती है। ऐसा करके विपक्षी पार्टियों ने सत्ता पक्ष पर से अपने कामों पर सवालों का सामना करने का दबाव कम ही किया है। इससे स्क्रीन पर सरकार के प्रतिनिधियों के लिए आलोचना से बचना और अपनी नाकामियो पर पर्दा डालना आसान होगा। ये किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में सत्ता संतुलन के लिए अच्छा लक्षण नहीं है।
तीसरा इस बहिष्कार ने मीडिया पर से जनता के भरोसे को कम किया है। कुछ एंकर्स को बीजेपी के एजेंट या नफरती ठहराकर गठबंधन ने उनकी विश्वसनीयता, स्वतंत्रता, ईमानदारी और पेशेवर रवैये पर सवाल उठाया है। ये इन एंकर्स की साख और इकबाल दोनों पर हमला है। लेकिन उससे भी बड़ी बात ये है कि ये कुल मिलाकर मीडिया को जनता की नजरों में गिराने वाला कदम है। इसके बाद ऐसे मीडिया संस्थानों को लेकर भी लोगों में वैमनस्य और बढ़ सकता है, जो अपनी ज़िम्मेदारी पर खरा उतर रहे हैं।
बहिष्कार के पक्ष में तर्क
कुछ लोग ये कह रहे हैं कि एंकर्स का बायकॉट दरअसल मीडिया के विरोध और स्व-नियमन का एक तरीका है। उनके मुताबिक मुख्यधारा के अधिकांश मीडिया संस्थान पक्षपात भरा दुष्प्रचार फैलाते हैं और प्रोपेगेंडा और सनसनी को बढ़ावा देते हैं। “इंडिया” गठबंधन ने दरअसल मीडिया की कारगुजारी को लेकर अपना असंतोष जताया है और वो मीडिया से नेताओं और सियासी मुद्दों को लेकर बेहतर पत्रकारीय संतुलन की चाहते हैं।
बहिष्कार के पक्ष में एक तर्क ये भी है कि विपक्ष ने अपने स्तर पर मीडिया के नियमन की पहल की है। सिर्फ कुछ एंकर्स को बहिष्कार के लिए चुनकर गठबंधन ने ना सिर्फ उन पर बल्कि मीडिया संस्थानों के मालिकों पर पत्रकारिता के स्तर को सुधारने का दबाव बनाया है। ये भी कहा जा रहा है कि इस कदम से जनता का ध्यान मीडिया के सामने मौजूद दिक्कतों और चुनौतियों की ओर जाएगा और उनसे निपटने का रास्ता निकल सकेगा।
बहिष्कार के पक्ष में तर्कों का जवाब
बहिष्कार मीडिया में कथित पक्षपात या दुष्प्रचार का ना तो प्रभावी तरीका है, और ना ही सही। अगर ये पक्षपात है भी, तो भी “इंडिया” गठबंधन को मीडिया के साथ बेहतर संपर्क के माध्यम से उसे तोड़ने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन बहिष्कार से विपक्षी पार्टियों ने इस चुनौती से कन्नी काटने का काम किया है। इससे मीडिया का व्यवहार सुधरने के बजाए और खराब हो सकता है। बायकॉट से जनता और पत्रकार, दोनों ही असल मुद्दों और तथ्यों से वंचित रहेंगे। उनके भ्रमित होने का खतरा भी बढ़ा है। विरोध करना ही है तो मीडिया कार्यक्रमों में अपनी भागीदारी को बेहतर बनाकर, ज्यादा पुख्ता तर्क और साक्ष्य पेश करना बेहतर तरीका है। मीडिया के तथाकथित प्रोपेगेंडा को उसकी गलतियों और झूठ को उजागर करके ही बेनकाब किया जा सकता है। सिर्फ बहस और चर्चा से ही मीडिया में पत्रकारिता को अधिक संतुलित बना मुमकिन है।
बहिष्कार मीडिया के स्व-नियमन का भी सकारात्मक और जायज़ तरीका नहीं हो सकता। इससे प्रेस की जवाबदेही और सम्मान दोनों ही कम हुए हैं। इस तरह का रवैया मीडिया के मूल्यों को नुकसान ही पहुंचा सकता है। बायकॉट से जनता के बीच मीडिया की विश्वसनीयता और कम होगी। मीडिया से सहयोग, उन्हें फीडबैक और परामर्श देना पत्रकारिता के आदर्शों की निगरानी का बेहतर तरीका है। अगर मीडिया की नाकामियों की आलोचना होनी चाहिए तो वो अपने अच्छे कामों के लिए तारीफ की भी हकदार है।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर देखें तो टीवी पत्रकारों का बहिष्कार अलोकतांत्रिक कदम है जो जनता के प्रति व्यवस्था की जवाबदेही को घटाता है और मीडिया की प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचाता है। ये फैसला विरोध के सुरों को दबाने की कोशिश है जिससे बतौर लोकतंत्र के प्रहरी मीडिया की भूमिका कमजोर होगी। ना तो इससे मीडिया में पक्षपात और दुष्प्रचार की समस्या हल होगी, ना ही हम इसे मीडिया के स्व-नियमन की सकारात्मक पहल कह सकते हैं।
“इंडिया” गठबंधन को समझना चाहिए कि समाधान मीडिया के साथ संवाद बढ़ाने और उसकी साख को बचाए रखने में है। उसे इस संवाद में अपनी भागीदारी बढ़ानी होगी और अपने नजरिए और साक्ष्यों को जनता के सामने रखने के ज्यादा असरदार तरीके खोजने होंगे। गठबंधन की मीडिया से शिकायतें पत्रकारों के प्रतिकूल दावों और सोच को चुनौती देकर एवं उनकी गलतियों और पक्षपात की पोल खोलकर ही दूर होंगी। गठबंधन के नेताओं को चाहिए कि वो मीडिया की समस्याओं पर जनता को लामबंद करके बेहतर पत्रकारिता का मांग करे। मीडिया में सुधार के लिए पत्रकारों का सहयोग करे, उन्हें फीडबैक और परामर्श दें, उनके कामकाज पर नजर रखें और गलती पर आलोचा करें तो जहां वाजिब हो, उनके काम और नवाचार की तारीफ करें। ऐसा करके विपक्षी गठबंधन अपने ही हितों और अधिकारों की रक्षा करेगा और लोकतांत्रिक आदर्शों को मजबूत बनाएगा।