Sunday Special Article: एक देश किसी लीडर के दृष्टिकोण से समृद्ध होता है। बशर्ते कि उस लीडर में भविष्य का दृष्टिकोण बृहद् होना चाहिए। फिर वह एक ऐसी शख्सियत में बदल जाता है, जो विरोधियों के बीच भी ऊंचे कद का सर्वमान्य नेता कहलाता है। यह व्यावहारिक अनुभव भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर खूब जमता है। न सिर्फ भारत में एक सर्वमान्य नेता के रूप में बल्कि विश्व में एक प्रभावशाली नेतृत्व के रूप में भी, जिसका प्रमाण है दक्षिण अफ्रीका में 21 से 24 अगस्त तक हुआ ब्रिक्स सम्मेलन जहां शामिल तो पांचों फाउंडर देशों के शीर्ष नेता थे, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ब्रिक्स के कुनबे को विस्तार की कल्पना देकर नेतृत्व की रेस में चीन को पीछे छोड़ दिया।
ब्रिक्स परिवार में नए सदस्यों की वकालत खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने करके चीन को चौंका दिया। यह न सिर्फ दुनिया के लिए कूटनीतिक संदेश था बल्कि प्रभावी वैश्विक नेतृत्व की पहल भी थी। दूसरे शब्दों में कहें तो पीएम मोदी ने ब्रिक्स पर चीन के प्रभुत्व जमाने की कोशिशों पर विराम तो लगाया ही, साथ ही ब्रिक्स सम्मेलन में भारत के असर और मौजूदगी का मजबूत एहसास कर दिखाया। इस क्रम में शी जिनपिंग से हुई वार्ता भी भारत की उपलब्धि है। क्योंकि यह वह मौका था जब प्रधानमंत्री मोदी जोहान्सबर्ग में हुए 15वें ब्रिक्स सम्मेलन में 2019 के बाद व्यक्तिगत रूप से शामिल हुए और भाग्य भारत के साथ था। चंद्रयान-3 की सफलता ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बेहद महत्वपूर्ण बना दिया। उनके शब्द भी कामयाबी के वजन से प्रभावी हो गए। दुनिया ने अंतरिक्ष जगत में भारत की शक्ति के दर्शन किए। एक स्पेस पावर के रूप में भारत और एक सर्वमान्य कामयाब नेतृत्व के रूप में प्रधानमंत्री मोदी ब्रिक्स सम्मेलन में छा गए।
ब्रिक्स सम्मेलन के आखिरी दिन जब शी जिनपिंग और नरेन्द्र मोदी के बीच मुलाकात हुई तो इंडोनेशिया के बाली में हुई अनौपचारिक मुलाकात मानो जीवित हो गई। हालांकि दोनों तरह के दावे सुर्खियों में हैं कि चीन की पहल पर शी-मोदी की बातचीत हुई या फिर भारत की पहल पर ऐसा हुआ। मगर, इन दावों से अलग महत्वपूर्ण यह है कि सरहद पर शांति के लिए एक पहल हुई है। एक खामोशी टूटी है। सरहद पर अनसुलझे मुद्दों को सुलझाने के लिए बातचीत ही रास्ता है। यह बात अपने आप में सुखद है कि तनाव कम करने को लेकर सहमति बनी है। ब्रिक्स में चीनी प्रभुत्व की आशंका से भारत हमेशा सजग रहा है। ब्रिक्स के विस्तार के बहाने चीन न सिर्फ अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है बल्कि इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल नाटो और खासकर अमेरिका के विरोध में भी करना चाहता है। उसकी कोशिश जी-7 के खिलाफ ब्रिक्स को खड़ा करने की रही है। मगर, भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं अर्जेंटीना, मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों को सदस्य बनाने की वकालत कर चीन से ये पहल छीन ली। यह ब्रिक्स सम्मेलन में भारतीय नजरिये से सबसे बड़ी उपलब्धि है।
भारत का अब तक रुख यह रहा था कि ब्रिक्स के विस्तार को लेकर चुनाव और मानदंड तय होने चाहिए। जब पीएम मोदी ने रुख बदला तो उन्हें रूस का भी समर्थन मिल गया। हालांकि हुआ वही जो चीन चाहता था, लेकिन हुआ उसी रूप में जिस रूप में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूरे प्रकरण को दिशा दी। ब्रिक्स के सदस्य देशों में भारत, रूस, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं। भारत और चीन एशिया के दो सबसे अहम देश हैं जो क्षेत्रफल और जनसंख्या के ख्याल से भी दुनिया का नेतृत्व करते हैं। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद और परंपरागत दोस्ती-दुश्मनी का इतिहास है। इसके बावजूद भारत और चीन के बीच 130 अरब डॉलर का सालाना कारोबार है। यह कारोबार चीन के पक्ष में है। यही कारण है कि युद्ध की तमाम परिस्थितियों के बावजूद दोनों देश इससे परहेज करते रहे हैं। डोकलाम या गलवान जैसी परिस्थितियों के कारण तनाव तो होते हैं लेकिन फिर भी स्थिति सम्भाल ली जाती है।
दुनिया के स्तर पर अमेरिका और चीन अब दो महाशक्ति हैं। भारत और रूस दो देश हैं जो शक्ति संतुलन के लिहाज से अहम हैं। 90 के दशक में रूस की जीडीपी भारत से बड़ी थी लेकिन आज भारत की जीडीपी रूस से बड़ी हो चुकी है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान शक्ति संतुलन इसलिए बना रहा क्योंकि नाटो के आक्रामक होने के बावजूद भारत तटस्थ रहा जबकि चीन ने रूस का साथ दिया। भारत के महत्व को इस लिहाज से भी देखा जाता है। विश्व स्तर पर भारत अमेरिका के साथ मिलकर क्वाड जैसे समूह से जुड़ा है जो भारत को अमेरिका के साथ खड़ा दिखाता है लेकिन जब यूक्रेन-रूस युद्ध में अमेरिका रूस के खिलाफ खड़ा होता है तो भारत अमेरिकी रुख के साथ नहीं होता। इससे भारत की स्वतंत्र वैदेशिक नीति पूरी तरह स्थापित होती है। दूसरी ओर, भारत ने चीन को ब्रिक्स का इस्तेमाल किसी भी तरह अमेरिका के खिलाफ नहीं करने दिया है। यह स्टैंड भी भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को स्थापित करने वाला और दुनिया में भारत की साख को बढ़ाने वाला है। निश्चित रूप से अमेरिका और नाटो भी भारत के इस रुख से संतुष्ट हुए हैं। चीन की भी बोलती बंद कर दी गई है और ब्रिक्स के विस्तार में भारत की भावना के अनुरूप कदम बढ़ाने के लिए वह विवश भी हुआ है। ब्रिक्स सम्मेलन से सामने आई ये बात भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ग्लोबल लीडर का रुतबा देती है।
आज ये बात साबित हो चुकी है कि भारत की कूटनीति से ही दुनिया में उसकी साख बढ़ी है। पीएम मोदी की कूटनीति का लोहा अमेरिका समेत रूस ने भी माना है जबकि इस मोर्चे पर चीन लगातार पिछड़ता चला गया है। न सिर्फ पश्चिमी देश बल्कि मध्य एशियाई देशों के बीच भी चीन की छवि खराब हुई है। चीन को एक सूदखोर देश के तौर पर पहचाना जाने लगा है। चीन ने कर्ज देकर लाभ कमाने की जो नीति अपनाई है, उससे विश्व के देशों में चीन को लेकर एक शंका पैदा हुई है जिसका असर चीन के कारोबार पर भी पड़ता दिख रहा है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल जुलाई के मुकाबले में चीन का निर्यात इस साल जुलाई में 14.5 फीसदी कम रहा। वहीं आयात भी 12.4 फीसदी गिर गया। बीते 9 साल में चीन की अर्थव्यवस्था में 84 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है तो भारत की अर्थव्यवस्था में 83 फीसदी की वृद्धि देखने को मिली है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आने वाले समय में भारत की विकास दर लगातार सुधरती जाएगी जबकि चीन की विकास दर में जो कमी दिखने लगी है वह आगे भी जारी रहेगी। इसके अलावा चीन में युवाओं की बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर है। चीन के मुकाबले भारतीय अर्थव्यवस्था में जान है। वह तेज रफ्तार से कुलांचे भर रही है। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भारत का विदेशी व्यापार 6 महीने में ही 800 अरब डॉलर पार कर चुका है।
ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान दक्षिण अफ्रीका में चीनी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री की मुलाकात में आर्थिक और कूटनीतिक स्तर पर भारत के मजबूत होने और चीन के कमजोर होने की बड़ी भूमिका है। भारत की मजबूत होती साख और क्वाड देशों की बढ़ती ताकत के बीच चीन के लिए भारत से दुश्मनी रखना महंगा साबित हो सकता है। शी-मोदी के बीच मुलाकात की असली वजह यही है। भारत के साथ रिश्ते सामान्य बनाना अब चीन की मजबूरी हो गई है। दुनिया में अलग-थलग पड़ता दिख रहा चीन नहीं चाहता कि भारत से दुश्मनी बढ़े। एक संतुलन की कूटनीति के तहत चीन अब भारत से नजदीकियां चाह रहा है।
दक्षिण अफ्रीका की धरती दोनों देशों के लिए इसलिए भी अहम है क्योंकि चीन का यहां बड़ा प्रभाव रहा है। चीन ने बीते 20 सालों में अफ्रीका में सबसे ज्यादा निवेश किया है। अफ्रीकी देशों में बीते 10 साल में चीनी निवेश 134 अरब डॉलर का रहा है। रुपये में यह आंकड़ा 11 लाख करोड़ है। समय पर कर्ज नहीं लौटाने के बाद चीन ने इन देशों का दोहन करना शुरू कर दिया। ऐसे में भारत के लिए यही वो समय है जब चीन से पीड़ित देशों के साथ वह नजदीकी बनाए। इन सबके बीच भारतीय कंपनियां अब दक्षिण अफ्रीका में अपने पैर पसारने लगी हैं। भारत हर साल अफ्रीका में 170 अरब डॉलर यानी 14 लाख करोड़ रुपए तक निवेश करने की तैयारी में जुट गया है। इस तरह भारत उन अफ्रीकी देशों की भी मदद कर सकता है जो चीन का कर्ज चुकाने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण पैदा हुए अनाज संकट की मार अफ्रीकी देशों पर भी पड़ी है। भारत इस मौके पर भी अनाज उपलब्ध कराकर उन देशों की मदद करने में सक्षम है। अफ्रीकी महाद्वीप में चीन के बाद निवेश के मामले में भारत दूसरे नंबर पर है। बीते 10 साल में भारत ने 2.65 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज अफ्रीका के 42 देशों को दिया है। अफ्रीकी देशों के साथ 8.30 लाख करोड़ रुपये का कारोबार भी भारत कर रहा है। भारत ने बीते 9 साल में अफ्रीकी देशों में 25 नए दूतावास खोले हैं। इस तरह कूटनीति, कारोबार और मदद के साथ भारत अफ्रीकी देशों में चीन की जगह खुद को स्थापित कर सकता है।
वर्ल्ड ऑर्डर बदल रहा है जिसमें भारत की नई भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। भारत तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है। दुनिया के निवेशक भारत में निवेश के लिए स्पर्धा कर रहे हैं। वहीं चीन की अर्थव्यवस्था की गति में सुस्ती आई है। पश्चिमी देशों के साथ उसके रिश्ते पहले के मुकाबले बिगड़े हैं। भारत के लिए यह अवसर है कि वह दुनिया भर के उन निवेशकों को आकर्षित करे जिनका झुकाव अब तक चीन की ओर था। दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भारत का ऐसा रुख दिखा भी है। भारत की नजर अब उस बाजार पर है जहां चीन का कब्जा है। ऐसे में वर्ल्ड ऑर्डर बदलने से भारत के लिए नए दरवाजे खुल सकते हैं।