चर्चा लोकतंत्र की, चिंता भारत विरोध की

Upendrra Rai
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Chairman & Managing Director, Editor-in-Chief, The Printlines | Bharat Express News Network
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पिछले दिनों वाशिंगटन के व्हाइट हाउस में हुई प्रेस वार्ता में एक दिलचस्प और बेहद महत्वपूर्ण वाकया इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। आगामी दिनों में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा पर केन्द्रित इस वाकये में भारतीय लोकतंत्र पर चिंता और उस चिंता को सिरे से खारिज करने का एक एपिसोड दर्ज हुआ। भारतीय लोकतंत्र को लेकर चिंता जताई एक मुस्लिम महिला पत्रकार अस्मा खालिद ने और इस चिंता को मजबूत तथ्यों के साथ खारिज किया व्हाइट हाउस के राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता और रणनीतिक संचार के समन्वयक जॉन किर्बी ने। पत्रकार के सवाल के जवाब में किर्बी ने कहा कि भारत एक जीवंत लोकतंत्र है और कोई भी नई दिल्ली जाकर इसे देख सकता है। दोनों के बीच हुए संवाद पर खूब बातें हो रही हैं लेकिन मेरी नजर में इस प्रकरण में दिलचस्प बात ये है कि चिंता जताने के बहाने आरोप जड़ने वाले और इस दुर्भावना को समय रहते ताड़कर उसका जवाब देने वाले दोनों शख्स भारतीय नहीं हैं, जबकि भारत के लोकतंत्र की सेहत भारत के विचार का विषय होना चाहिए। इसलिए न तो हमें आरोप लगाने वाले को ज्यादा तवज्जो देने की जरूरत है, न आरोप के जवाब में किसी और से मान्यता वाले सर्टिफिकेट की कोई आवश्यकता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की कीर्ति चारों दिशाओं में फैली हुई है और इसके लिए दिल्ली आने की भी जरूरत नहीं है। दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर इसकी मालूमात ली जा सकती है। तो एक तरह से ये बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना वाली बात हो गई। 

अब इस प्रकरण से जुड़ी महत्वपूर्ण बात। भारत के लोकतंत्र पर ये कोई पहला हमला नहीं है। सांस्कृतिक-धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं के साथ ही हमारी लोक केन्द्रित शासन प्रणाली एक अभूतपूर्व प्रचार युद्ध का निशाना रही है। भारत को लेकर ये पूर्वाग्रह आजादी के पहले से चला आ रहा है और फिर आजादी के बाद तो लंबे समय तक सपेरों के देश के रूप में हमें कमतर करने की कोशिशें चलती रहीं। लेकिन हाल के कुछ साल में ये प्रवृत्ति काफी तेजी से बढ़ी है और अब इसका मकसद महज माखौल उड़ाने तक नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीतिक साजिश में बदल चुका है। हमारी जाति प्रथा, दक्षिणपंथी विचारधारा, अल्पसंख्यक अधिकार, हिंदू धर्म की प्रथाएं और ताजा-ताजा एलजीबीटीक्यू को लेकर हमारी प्रतिक्रिया जैसे विषयों में पश्चिमी जगत और कुछ खास मुस्लिम देशों की रुचि अपने खुद के घरेलू मसलों से ज्यादा और काफी बढ़ी दिखती है। हम अपने राज्य असम में अगर बाल विवाह के खिलाफ कार्रवाई करते हैं तो पश्चिम को यह शायद इसलिए मानवाधिकारों का उल्लंघन लगता है क्योंकि मुस्लिम समाज में ऐसे विवाह बड़े पैमाने पर होते हैं। तीन तलाक की पुरातन, पिछड़ी और गैर-मानवीय प्रथा के खिलाफ कानून पास होने को प्रतिक्रियावादी हिंदू कट्टरवाद का नाम देने की कोशिश होती है जबकि सती और पर्दा प्रथा हमेशा से पश्चिमी बुद्धिजीवियों और वामपंथी नारीवादियों को परेशान करती रही है। ये तब है जब सती प्रथा के पीछे कोई धार्मिक-सामाजिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मुस्लिम अतिक्रमणकारियों के हाथों अपमान से बचने की मजबूरी थी।  

पड़ोसी देशों में रह रहे हमारे गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न से राहत देने के लिए बना नागरिकता संशोधन कानून इस गुट को भारत में रह रहे मुसलमानों के अस्तित्व पर संकट दिखता है। इसी तरह चाहे कृषि कानून हो, अनुच्छेद 370 हो, हिजाब पर विवाद हो या कट्टरपंथी मदरसों के खिलाफ कार्रवाई, भारत-विरोध का एजेंडा चलाने वाला गुट भारत की छवि खराब करने के लिए इन विषयों को हाथों-हाथ लेता रहा है। प्रधानमंत्री पर बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री को भी इस आधार पर नफरती एजेंडे का हिस्सा कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में हिंदू लड़कियों का अपहरण और जबरन धर्म परिवर्तन, बलूचिस्तान में अत्याचार, कतर और तुर्किए का टेरर फंडिंग में शामिल होना, कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और भारत में ईशनिंदा बीबीसी की रचनात्मक टीम का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाती है। हाल ही में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश नागरिकों सहित इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा ब्रिटेन में रह रहे हिंदुओं के खिलाफ हुई हिंसा भी बीबीसी की नजर से कैसे बच गई जबकि ये घटना तो उसके मुख्यालय वाली जमीन पर ही हुई थी।

कुछ दिनों पहले अमेरिकी उद्योगपति जॉर्ज सोरोस ने भी अडाणी प्रकरण की आड़ लेते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्र सरकार पर हमला कर भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को हिलाने का प्रयास किया था। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की आड़ में सरकार को अपदस्थ करने के मामले में सोरोस का रिकॉर्ड किसी से छिपा नहीं है। क्यूबा, बोलिविया, वेनेजुएला, हैती और निकारागुआ की सरकारों के तख्तापलट में सोरोस का बड़ा हाथ रहा है। सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन से पोषित हो रहे कई एनजीओ और संस्थाएं हर साल जो अपनी रिपोर्ट निकालते हैं, उसमें भी भारत की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ करने का पूरा ध्यान रखा जाता है। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स या तथाकथित, ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की इसी महीने आई रिपोर्ट में प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत को पाकिस्तान और अफगानिस्तान से नीचे रखा है। लेकिन फ्रांस और अमेरिका से मिल रहे फंड के बदले रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स वहां मीडिया के दुरुपयोग पर काफी हद तक चुप्पी साध लेता है। 

इसी तरह ‘वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स 2023’ है, जो राजनीतिक उथल-पुथल और दिवालियेपन के बावजूद श्रीलंका को भारत से ऊपर रखता है और इस सवाल का जवाब नहीं देता कि आत्महत्या की सबसे अधिक दर होने के बाद भी फिनलैंड उसके इंडेक्स में लगातार सबसे खुशहाल देश कैसे बना रहता है? वर्ल्ड हंगर इंडेक्स निकालने वाली आयरलैंड की एजेंसी जीएचआई दुनिया के सबसे बड़े खाद्य कार्यक्रम को चलाने और इसकी दक्षता के लिए विश्व बैंक की तारीफ बटोरने के बावजूद भारत को 121 देशों में 107वें नंबर पर रखती है। जॉर्ज सोरोस द्वारा पोषित एक और संस्था स्वीडन की वी-डेम ने अकादमिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में भारत को पाकिस्तान, इराक और अफगानिस्तान से पीछे रखा है। 

तमाम इंडेक्स की इन रैंकिंग की क्रोनोलॉजी और जमीनी हालात से इसकी तुलना करने पर भारत विरोधी सारा खेल समझ आने लगता है। लेकिन भारत विरोधी एजेंडा चला रहे लोग शायद अभी भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आज वो जिस भारत के मुकाबले में हैं, वो पहले से बदल चुका है। पहले हम इन आक्षेपों को नजरंदाज कर दिया करते थे, लेकिन नए भारत को अपनी विरासत से जुड़ने में शर्म नहीं, बल्कि गर्व की अनूभूति होती है। आज का भारत नफरती महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित पश्चिमी और इस्लामवादी लॉबी के घृणित प्रचार और अपमान का करारा जवाब देना जानता है। व्हाइट हाउस के राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रवक्ता जॉन किर्बी का भारत के पक्ष में बयान हाल के दिनों में बनी हमारी इसी साख और नई पहचान का ही नतीजा है। आज की पल-पल बदलती दुनिया में जहां अंतरराष्ट्रीय संबंधों की जटिलता लगातार बदलती रहती है, वहां किसी मुद्दे पर किसी देश के रुख को साफ तौर पर स्पष्ट करने के लिए ऐसा सार्वजनिक बयान दुर्लभ है। अगले साल देश में आम चुनाव होने हैं और उससे पहले भारत को अस्थिर करने की कोशिशों में लगी ताकतों की ओर से हम ऐसे कई और प्रयासों के साक्षी बनेंगे। इसलिए इस मामले में आक्रामकता ही आज के समय की आवश्यकता है।

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