Israel Hamas War: स्वार्थ का संग्राम, दुनिया करे त्राहिमाम

Upendrra Rai
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Chairman & Managing Director, Editor-in-Chief, The Printlines | Bharat Express News Network
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Sunday Special Article: 15 मई, 1948 को इजरायल के जन्म के साथ ही मध्य-पूर्व में संघर्ष की ऐसी बुनियाद पड़ी जिसकी ज्वाला समय-समय पर धधकती रही है। फिलिस्तीनी, अरब और इजरायलियों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि 75 साल बाद भी ये पट नहीं सकी है। इसका प्रमाण है सात से भी ज्यादा युद्ध जो इस दौरान इजरायल फिलिस्तीन और अरब देशों के बीच हुए हैं। चारों तरफ अरब देशों से घिरा इजरायल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता रहा है। इस दौरान इजरायल ने अपने को इतना मजबूत बना लिया है कि अकेले दम पर किसी को भी धूल चटा दे। 1967 में इजरायल ने सिर्फ छह दिनों में तीन ताकतवर पड़ोसी अरब देशों को परास्त कर दिया था जिन्होंने उस पर हमला करने की जुर्रत की थी। लेकिन 7 अक्टूबर, 2023 को हमास के इजरायल पर आक्रमण के साथ शुरू हुए युद्ध को एक महीने से ज्यादा हो गया है फिर भी इसका अंत नजर नहीं आ रहा। इसकी सबसे बड़ी वजह है पर्दे के पीछे से आग में घी डालने वाली या यूं कहें युद्ध को भड़का कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाली शक्तियों का खेल। हमास जैसे संगठन का इतना सामर्थ्य नहीं कि वो अकेले इजरायल से लोहा ले सके। हमास को ताकत मिलती है ईरान, सीरिया, तुर्किए जैसे देशों से, जबकि इजरायल के साथ खुलकर खड़े रहे हैं अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देश।

मध्य-पूर्व में मौजूदा संकट की कोई आहट नहीं थी, लेकिन हमास के अचानक हमले ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। इजरायल के विनाशकारी पलटवार की संभावना से वाकिफ हमास ने यह हमला क्यों किया, क्यों शांति से जी रही अपनी जनता के लिए खतरा पैदा किया, इजरायल की ताकत और सामर्थ्य से परिचित हमास ने उसे चुनौती देने का फैसला क्यों किया? इन सब सवालों का जवाब है पर्दे के पीछे से चिंगारी लगाने वाली शक्तियां। जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ भी। इजरायल ने हमास के बर्बर हमले का ऐसा विध्वंसक जवाब दिया है कि पूरा गाजा खंडहर में तब्दील हो गया है।

आधा गाजा इजरायल के कब्जे में आ चुका है। इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू इसकी घोषणा कर चुके हैं। उपलब्धि के तौर पर हमास के 20 से ज्यादा बड़े कमांडर और 1000 से ज्यादा आतंकियों का मारा जाना शामिल है। हमास चीफ याह्या सिनवार अब भी जिन्दा है और इजरायल का दावा है कि वह घिर चुका है और कभी भी मारा जा सकता है। लेकिन, युद्ध के 35 दिन बाद भी इजरायली बंधक रिहा नहीं कराए जा सके हैं। ऐसे में सवाल ये है कि आधा गाजा पर कब्जे को भी क्या इजरायल की जीत के तौर पर देखा जा सकेगा?

युद्ध के करीब एक महीने बाद उत्तरी गाजा पूरी तरह इजरायल के नियंत्रण में है। हजारों लोग उत्तर से दक्षिण की ओर शिफ्ट हो चुके हैं। मगर, लड़ाई अभी जारी है। अमेरिका की अपील के बावजूद तीन दिन के युद्धविराम पर इजरायल तैयार नहीं हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि तुर्किए ने इजरायल से अपने राजदूत को वापस बुला लिया। तुर्किए के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोआन ने अमेरिकी मंत्री एंटनी ब्लिंकन से मुलाकात टाल दी। तुर्किए लगातार इस बात पर जोर दे रहा है कि युद्धविराम तुरंत होना चाहिए।

हालांकि मानवीय आधार पर हर दिन चार घंटे का युद्धविराम शुरू हो गया है। ऐसा दावा अमेरिका की ओर से सामने आया है। इजरायल ने इस दावे पर भी स्पष्टीकरण देते हुए इसे संघर्ष विराम न कहते हुए मानवीय आधार पर स्थानीय स्तर पर संघर्ष रोकना बताया है। उसने स्पष्ट किया है कि बंधकों की रिहाई होने तक युद्धविराम नहीं हो सकता। ऐसे में बड़ा सवाल है कि अब आगे क्या होगा? उत्तरी गाजा जीत लेने के बाद भी अगर हमास की गतिविधियां नहीं रुकती हैं तो आने वाले वक्त में इजरायल के कदम क्या होंगे? इनमें बंधकों की रिहाई बड़ा मुद्दा है। इजरायल इसे सैन्य कार्रवाई की सफलता के तौर पर अपनी जनता को बता सकता है। हमास का नेटवर्क तबाह होने की पुष्टि और बंधकों की रिहाई इजरायल के लिए फिलहाल सबसे अहम है।

हमास सिर्फ आतंकी संगठन नहीं है। यह उस सोच का सैन्यीकरण है जो फिलिस्तीन की जमीन पर इजरायली कब्जे को अवैध मानता है। यह सोच तभी सुषुप्त हो सकती है जब फिलिस्तीन और इजरायल दो राष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकार कर लें और एक-दूसरे की संप्रभुत्ता का सम्मान करें। न फिलिस्तीन की पूरी आबादी को हटाया या मिटाया जा सकता है, न ही यहूदियों को इजरायल से बेदखल करना संभव है। इसका मतलब साफ है कि युद्ध इस समस्या का समाधान नहीं है। बल्कि युद्ध से तो स्थितियां और बिगड़ेंगी। लड़ाई में नुकसान दोनों पक्ष का हो रहा है और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा।

हमास के कमजोर होने से फिलिस्तीनी अधिकारों को जायज ठहराने वाली दूसरी ताकतें भी इजरायल से आमना-सामना करने को तैयार हैं। कई वैश्विक ताकतें ऐसी भी हैं जो फिलिस्तीन-इजरायल संघर्ष में अपने हितों की रोटियां सेंकने को बेकरार हैं। युद्ध को भड़काने में उनकी भी भूमिका है और आगे भी रह सकती है। इसलिए ऐसा नहीं है कि हमास के कमजोर होने से इजरायल के समक्ष चुनौतियां कम या खत्म हो जाएंगी। हिज्बुल्लाह और हूती विद्रोहियों ने इजरायल के साथ सीमित लड़ाई शुरू कर दी है और व्यापक लड़ाई की वह लगातार धमकियां दे रहा है। तुर्किए, ईरान और सीरिया जैसे देश इजरायल को चेता रहे हैं। अमेरिकी युद्धपोत खाड़ी में तैनात हैं जिसके कारण तनाव और बढ़ा है मगर अमेरिका इसे इजरायल की सुरक्षा के लिहाज से आवश्यक मानता है।

7 अक्टूबर के बाद से गाजा पर हमला करते हुए इजरायल अब तक 51 अरब डॉलर खर्च कर चुका है जो उसकी जीडीपी का 10 फीसद है। राजस्व को 10-15 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है, सो अलग। अमेरिका ने इजरायल के लिए नियमित आर्थिक मदद के अलावा हमास युद्ध के कारण 14.3 अरब डॉलर की अतिरिक्त मदद की भी घोषणा की है। लेकिन युद्ध अगर लम्बा खिंचा तो ये तय है कि ये मदद भी कम पड़ जाएगी।

गाजा पर कब्जा करने की जिद हिज्बुल्लाह और हूती जैसे संगठनों को भी उकसाएगी। हिज्बुल्लाह बेहद मजबूत आतंकी संगठन है जो लेबनान से संचालित है और इजरायल से बिल्कुल सटा है। हिज्बुल्लाह के पास डेढ़ लाख से ज्यादा रॉकेट-मिसाइल हैं। उसके पास एंटी शिप मिसाइलें भी हैं जिनके दम पर वह खाड़ी में तैनात अमेरिकी युद्धपोत से भी नहीं डरने के दावे कर रहा है। हिज्बुल्लाह के पास इजरायल को लंबे युद्ध में उलझाकर रखने की क्षमता है तो इजरायल के पास भी यह क्षमता है कि वह लेबनान को खंडहर में तब्दील कर दे। अगर हिज्बुल्लाह को खुलकर ईरान का समर्थन मिलता रहा तो युद्ध का नया मोर्चा खुलना इजरायल को भारी भी पड़ सकता है।

दरअसल, ईरान का मकसद अरब में अपना नेतृत्व स्थापित करना है। उसके लिए अरब में अमेरिका की उपस्थिति आंखों में किरकिरी की तरह है। अमेरिकी मदद से इजरायल के हमास पर आक्रमण का ईरान इसी वजह से विरोध कर रहा है और वह लगातार अमेरिका-इजरायल को बुरे अंजाम भुगतने की धमकी दे रहा है। आतंकी संगठनों को हथियार उपलब्ध कराने का काम ईरान पहले से करता रहा है। हमास की भी वह मदद करता रहा है। हिज्बुल्लाह और हूती जैसे संगठन भी इस्लाम की रक्षा के नाम पर सहानुभूति हासिल करते रहे हैं।

उधर, यूक्रेन के साथ युद्ध में रूस उलझा है तो पश्चिमी देश और अमेरिकी प्रतिष्ठा भी इसमें बुरी तरह फंसी है। रूस के हालात यह हैं कि वह जिन देशों को हथियार बेच चुका था, उनसे वापस हथियार मांग रहा है। भारत जैसे देश को हथियारों की आपूर्ति में देरी कर रहा है। फिर भी युद्ध के नतीजे अपने पक्ष में कर पाने में विफल रहा है। अनिर्णय की स्थिति और उसके दुष्परिणाम दुनिया भुगत रही है। ऐसे में हमास-इजरायल संघर्ष ने अगर अरब-इजरायल संघर्ष जैसा रूप लिया तो लड़ाई चीन-रूस-ईरान बनाम नाटो हो सकती है। फिर भी कोई नतीजा निकलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

2024 के मार्च में रूस में राष्ट्रपति चुनाव होने जा रहे हैं। यूक्रेन से युद्ध के बाद राष्ट्रपति पुतिन की लोकप्रियता गिरी है। उनके बीमार होने की भी चर्चा है। पुतिन जब तक युद्ध को रूस के लिए जरूरी और फायदेमंद साबित नहीं कर पाते हैं, चुनाव में हार का डर बना रहेगा। ऐसे में इजरायल-फिलिस्तीन में एक और मोर्चा खुल जाने से रूस ध्यान भटकाने में कामयाब हो सकता हैं। वैसे भी अमेरिकी वर्चस्व को कमजोर करना रूस का राष्ट्रवादी एजेंडा रहा है।

वैश्विक तनाव की एक अहम धुरी अमेरिका विश्व में महाशक्ति वाली भूमिका खोने को तैयार नहीं है इसलिए इजरायल पर हमले को ‘खुद पर हमले’ के रूप में देख रहा है। यानी इजरायल-हमास संघर्ष अमेरिका को भी अप्रिय नहीं है। ईरान और सऊदी अरब जैसे ताकतवर मध्य-पूर्व के देश तेल के कारोबार पर अपने नियंत्रण को लेकर बेचैन हैं। लिहाजा अमेरिका के पक्ष और विपक्ष में लामबंदी का वे हिस्सा बने नजर आते हैं। हालांकि इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष का स्वभाव धार्मिक होने की वजह से इन्हें अक्सर अपना रुख फिलिस्तीन के हक में करना पड़ता है।

अमेरिका और इजरायल की अंदरूनी राजनीतिक स्थिति भी राष्ट्रपति बाइडेन और नेतन्याहू के लिए थोड़ी विपरीत है। इस कारण अपनी सियासत के लिए ये नेता युद्ध में दिलचस्पी लेकर राष्ट्रवाद को पैदा करने की जरूरत महसूस कर रहे हैं। 2024 में अमेरिका में राष्ट्रपति के लिए चुनाव होना है। ताजा सर्वे में जो बाइडेन 6 में से 5 राज्यों में पिछड़ रहे हैं। इसकी वजह मूल रूप से इजरायल-हमास और रूस-यूक्रेन जंग में अमेरिका की कथित विफलता है। माइग्रेशन पॉलिसी को लेकर भी अमेरिकियों को अपने राष्ट्रपति से नाराज़गी है। मगर, सबसे बड़ी भूमिका है अमेरिका के आर्थिक हालात जिस वजह से बाइडेन चुनाव में पिछड़ते दिख रहे हैं।

भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के लिए भारत की अध्यक्षता में जी-20 के देशों ने इंडिया मिडिल ईस्ट इकॉनमिक कॉरिडोर की पहल की है। भारत के अलावा अमेरिका, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, यूरोपीय यूनियन, इटली, फ्रांस और जर्मनी ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके बाद से ही चीन की नींद उड़ी हुई है जिसने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के जरिए भविष्य में अपने लिए मध्य-पूर्व और यूरोप तक बाजार खोज रखा है। इस परियोजना पर चीन ने करोड़ों डॉलर खर्च कर दिए हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध में चीन अवश्य रूस के साथ खड़ा दिखा है लेकिन वास्तव में इस युद्ध के बाद महाशक्ति के तौर पर रूस की जगह चीन ने हथिया ली है। अब इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष में अगर अमेरिका उलझता है तो इसका भी फायदा चीन उठाना चाहता है। इसी वजह से युद्ध चीन की जरूरत है।

अब्राहम समझौते ने मध्य-पूर्व में एक अलग ही गठबंधन खड़ा कर दिया। इसमें इजरायल के साथ-साथ संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, सूडान और मोरक्को शामिल हैं। लेकिन इस्लामिक देशों का इजरायल और अमेरिका के साथ गोलबंद होना विश्व के कई देशों को नहीं पच रहा था। लिहाजा गाजा पर हमले को इन देशों ने अवसर के रूप में देखा। हमास-इजरायल संघर्ष ने निश्चित तौर पर अब्राहम समझौते को कमजोर कर सदस्य देशों में परस्पर अविश्वास का ऐसा माहौल बनाया है जो विश्व शांति के लिए बड़ा खतरा बन गया है।

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