Nazaria Article: बुलंद हो रहा ‘जय भारत’ का नारा

Upendrra Rai
Chairman & Managing Director, Editor-in-Chief, The Printlines | Bharat Express News Network

Sunday Special Article: फ्रांस की राजधानी पेरिस में बैस्टिल-डे परेड में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति निश्चित ही 140 करोड़ देशवासियों के लिए राष्ट्रीय गर्व का विषय है. चैंप्स-एलिसीस पर मार्च करते हुए भारतीय सशस्त्र बलों की टुकड़ी ने जहां भारतीयों को पेरिस में राजपथ का एहसास करवाया, वहीं दुनिया को यूरोपीय सुरक्षा में भारत के भूले हुए अतीत के योगदान की याद भी दिलाई. प्रथम विश्व युद्ध में लगभग दस लाख और दूसरे विश्व युद्ध में इसके भी दोगुने यानी करीब बीस लाख भारतीय सैनिकों ने महत्वपूर्ण मोर्चों पर यूरोप में शांति स्थापित करने में मदद की थी। यूरोपीय और वैश्विक सुरक्षा में हमारे सैनिकों का जो गौरवशाली योगदान अब तक नजरंदाज रहा उसे प्रधानमंत्री ने याद रखने और उसका सम्मान करने का सार्थक प्रयास किया है।

बेशक यह अवसर खास है लेकिन इसे लेकर बने उत्सव के माहौल में यह अहम बात भी नजरंदाज नहीं होनी चाहिए कि प्रधानमंत्री की फ्रांस यात्रा वैश्विक रणनीतिक और सामरिक क्षेत्र में लगातार बढ़ रहे भारतीय दबदबे के एक नए अध्याय का प्रारंभ भी है। साथ ही यह भारत की विदेश नीति के हाशिए पर चले गए यूरोप को फिर से केन्द्र में लाने की एक बड़ी योजना का हिस्सा भी है। खासकर यह देखते हुए कि फिलहाल यूक्रेन में युद्ध पर काबू पाने के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं।

इतिहास में थोड़ा पीछे जाएं तो 90 के दशक में जब तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उदारीकरण की लहर शुरू की थी तो उसे गले लगाने वालों में जर्मनी, ब्रिटेन और फ्रांस की अगुवाई में यूरोप ही सबसे आगे था। करीब एक दशक का यह वो दौर था जब प्रौद्योगिकी और व्यापारिक साझेदारियों से लेकर निवेश और बैंकिंग जैसे तमाम मुद्दों पर यूरोप भारत की पसंदीदा मंजिल बन गया था। लेकिन इसके बाद जब भारत और अमेरिका में करीबियां बढ़ीं और यूरोपीय संघ ने सीएफएसपी यानी सामान्य विदेश और सुरक्षा नीति लागू की तो भारत के साथ यूरोप के संबंधों से गर्मजोशी गायब होने लगी। इसमें कुछ योगदान हमारी लालफीताशाही और तत्कालीन शासन व्यवस्था में जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार का भी रहा। रूस की सस्ती ऊर्जा और तत्कालीन चीन के उभरते बाजार के साथ ही इन दोनों देशों के सहयोगी सिस्टम में यूरोप को नई संभावनाएं दिखने लगीं। दो दशक बाद समय का चक्र फिर बदला है। यूक्रेन में युद्ध ने यूरोप को चेताया है कि रूस की सस्ती ऊर्जा उसे महंगी भी पड़ सकती है। पुतिन के रूस से मिले सबक के बाद यूरोप अब चीन के बाजार पर अपनी निर्भरता को लेकर भी पुनर्विचार के लिए मजबूर हुआ है। 90 के दशक के अनुभव को दोहराते हुए यूरोप एक बार फिर भारत को विकल्प के रूप में देख रहा है। जाहिर तौर पर नए भारत का नया सामर्थ्य इस आकर्षण की बुनियाद है। इस दिशा में प्रधानमंत्री मोदी के फ्रांस दौरे ने एक लॉन्चिंग पैड का काम किया है। रक्षा सौदा इस यात्रा का मुख्य आकर्षण रहा है जिसमें 90,000 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के 26 राफेल एम विमान और तीन अतिरिक्त स्कॉर्पीन पनडुब्बियों की खरीद शामिल है। फ्रांस, अमेरिका, इजरायल, जर्मनी और दक्षिण कोरिया जैसे देशों के साथ भारत का बढ़ता सामरिक सहयोग जहां एक ओर हथियारों के लिए रूस पर हमारी अत्यधिक निर्भरता को कम कर रहा है, वहीं रक्षा आधुनिकीकरण की हमारी मुहिम में नई रणनीतिक साझेदारियों की जमीन भी मजबूत कर रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि बीते करीब एक दशक में निरंतर विस्तार कर रही भारत की सामरिक शक्ति और उसके बढ़ते वैश्विक कद ने समूचे विश्व को प्रभावित किया है। तीसरे सबसे बड़े रक्षा बजट के साथ दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की भौतिक क्षमताएं आज अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को प्रभावित करने का दमखम रखती हैं। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में मौजूदा सरकार राष्ट्रीय राजनीतिक इच्छाशक्ति को नई अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं के साथ जोड़ने में सफल रही है। आज दुनिया के नेतृत्व को लेकर जो शक्ति संघर्ष चल रहा है उसमें सभी पक्षों को निर्विवाद रूप से अपने साथ जोड़ने में भारत जैसी सौभाग्यशाली स्थिति वाला कोई दूसरा देश नहीं दिख रहा है। गुटनिरपेक्षता की अपनी परंपरा को मजबूती से कायम रखते हुए भी भारत मुख्य रूप से पश्चिम-केन्द्रित क्वाड, अमेरिका के नेतृत्व वाले आईपीईएफ यानी इंडो-पैसिफिक इकॉनमिक फ्रेमवर्क, ब्रिक्स, पूर्व के देशों के शंघाई सहयोग संगठन और रूस के संचालन वाले ईस्ट इकॉनमिक फोरम का अहम सदस्य है। एक ही समय में भारत रूस और अमेरिका का दोस्त है और जापान, फ्रांस एवं इजरायल जैसे देश भी हैं जो हमसे अपने संबंधों की दुहाई देने के लिए लालायित दिखते हैं। हालांकि गुटनिरपेक्षता के साथ इस तरह के बहुस्तरीय जुड़ाव चीन के बढ़ते प्रभाव, गहराते रूस-चीन संबंध और चीन-पाकिस्तान के आतंकी गठजोड़ की दृष्टि से हमारी जरूरत भी हैं लेकिन यह हमारी बढ़ती वैश्विक स्वीकार्यता के प्रमाण भी हैं।

आज लोग भारत को सुनना चाहते हैं और कई देशों में ऐसी मान्यता है कि भारत के साथ काम करने से उनका प्रभाव भी बढ़ेगा। इससे भी बड़ी उपलब्धि यह है कि रणनीतिक रूप से सशक्त हो रहा भारत अब वैश्विक मंच पर अपनी शर्तों पर संबंध बना रहा है। खासकर सामरिक समझौतों में भारत प्राथमिकता से आयातित सैन्य उपकरणों के स्वदेशीकरण और तकनीक के हस्तांतरण पर जोर दे रहा है ताकि आगे चलकर इन उपकरणों के पुर्जों और उनकी मरम्मत में भी हमारी आत्मनिर्भरता बनी रहे और हमें किसी और के आसरे नहीं रहना पड़े। इस तरह भारत के मेक इन इंडिया का सपना भी पूरा हो रहा है। कुछ वर्ष पूर्व तक विश्व की जिन महाशक्तियों के दरवाजों पर अन्य देश याचक की तरह हाथ जोड़े खड़े रहते थे, आज वही शक्तिशाली देश भारत की चौखट पर अपनी बारी का इंतजार करते दिखते हैं। लड़ाकू जहाज बनाने वाली रूसी रक्षा कंपनी मिग हो या फिर सुपर हॉर्नेट बना रही अमेरिकी विमानन कंपनी बोइंग या एफ-16 की उत्पादक कंपनी लॉकहीड मार्टिन, मिसाइल बनाने वाली इजरायल एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज समेत जर्मनी, स्वीडन, स्पेन और जापान जैसे देश भारत के साथ पनडुब्बी निर्माण और तकनीक साझा करने की होड़ लगा रहे हैं। बेशक भारत से जुड़ाव के पीछे इनके आर्थिक हित और रणनीतिक स्वार्थ भी हैं, लेकिन इन सौदों में नए भारत की उपस्थिति हमें मजबूती देने के साथ ही वैश्विक संतुलन को भी सुनिश्चित करती है। अंत में इसका लाभ यही है कि कालांतर में भारत को इन तमाम विकसित देशों की उन्नत तकनीक का जो खजाना उपलब्ध होने जा रहा है वो शायद ही किसी अकेले देश के पास होगा।

रणनीतिक प्रभुत्व के साथ-साथ सामरिक आत्मनिर्भरता का लाभ यह भी है कि इससे न केवल हमारे आयात पर व्यय कम होगा, बल्कि सिविल सेक्टर को बहुआयामी लाभ भी प्राप्त होगा। इस बचत का एक सिरा देशवासियों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लक्ष्य से भी जुड़ता है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का रक्षा उत्पादन और लगभग 16,000 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ है जो अब जल्द ही 20,000 करोड़ रुपये के स्तर को पार कर लेगा। इस लिहाज से देश 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के प्रधानमंत्री के विजन को साकार करने की दिशा में अभूतपूर्व गति से आगे बढ़ रहा है। इसका उद्देश्य आर्थिक रूप से शक्तिशाली और पूरी तरह से आत्मनिर्भर भारत बनाना है, जो एक शुद्ध रक्षा निर्यातक भी हो। आज विश्व स्तर पर भारत की रेटिंग दुनिया की तीसरी से चौथी सबसे शक्तिशाली सेना के रूप में देखी जाती है। ये अपने आप नहीं हुआ, बल्कि इसे पूरा करने और इसे विश्व मंच पर स्वीकार्यता और मान्यता दिलाने के लिए बहुत ही कम समय में बहुत सारे अथक प्रयास, कड़ी मेहनत और दूरगामी रणनीति अपनाई गई है जिसके फलस्वरूप चुनौतियों के निवारण के लिए शक्ति और मारक क्षमता का अब सर्वोत्तम उपयोग संभव हो रहा है। इसी वजह से दुनिया भर में आज जय भारत का नारा भी बुलंद हो रहा है।

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