देश का अगला आम चुनाव साल 2024 में होना है। लेकिन जो जंग एक साल बाद होनी है क्या उसका बिगुल अभी से बज गया है? इस कयास का केन्द्र बना है मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में बीजेपी का एक सांगठनिक आयोजन जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने समान नागरिक संहिता की हुंकार भरकर देश के सियासी माहौल में अचानक से गर्मी ला दी है। यह पहली बार नहीं है जब बीजेपी ने देश में समान नागरिक संहिता की वकालत की है। हालांकि, यह शायद पहला अवसर ही है जब स्वयं प्रधानमंत्री की ओर से इस मद्दे पर इतनी मजबूती से वकालत की गई है, चूंकि आम चुनाव कुछ ही महीने दूर हैं, इसलिए दोनों के बीच संबंध की संभावना ढूंढ़ना स्वाभाविक भी है। वैसे भी लोकसभा की लड़ाई के लिए विपक्षी दलों के एक साथ आने और एक ताकत के रूप में बीजेपी को चुनौती देने के लिए तैयार होने के मद्देनजर प्रधानमंत्री से कुछ ऐसे ही जवाब की उम्मीद भी की जा रही थी।
राम मंदिर और आर्टिकल 370 के साथ समान नागरिक संहिता लंबे वक्त से बीजेपी के चुनावी एजेंडे में शामिल रहा है। प्रधानमंत्री के ऐलान के बाद अब क्या सरकार इस मुद्दे पर संसद में कोई बिल लाएगी, यह स्पष्ट नहीं है। अभी सितंबर तक भारत को जी-20 की बैठकों की मेजबानी करनी है। ऐसा लगता नहीं है कि सरकार उससे पहले इस विषय पर किसी तरह के हंगामे की स्थिति बनने देगी। नवंबर में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। विधानसभा चुनावों के आसपास ही संसद का शीत सत्र भी होगा जो लोकसभा चुनाव से पहले इस मुद्दे पर आगे बढ़ने का बीजेपी का आखिरी मौका होगा। एक दूसरा पक्ष यह है कि विपक्षी एकता के सामने बीजेपी इसे केवल एक चुनावी काट के तौर पर आजमाए और लोकसभा चुनाव से पहले विधानसभा चुनाव में इसके असर को टेस्ट करे। रणनीति क्या होगी यह आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा।
फिलहाल तो बीजेपी प्रधानमंत्री के सुझाव को मास्टर स्ट्रोक बताकर एक तीर से दो निशाने साधने का दावा कर रही है। बीजेपी के भीतर कुछ लोगों को लगता है कि समान नागरिक संहिता के मुद्दे को हवा देकर प्रधानमंत्री ने जैसे-तैसे कुनबा बना रहे गैर-बीजेपी दलों के बीच विभाजन पैदा कर दिया है। आम आदमी पार्टी और बीजेडी को समान नागरिक संहिता पर कोई आपत्ति नहीं है। शिवसेना-उद्धव गुट भी कुछ शर्तों के साथ सहमत है, जबकि पटना में विपक्षी एकता बैठक के प्रमुख प्रस्तावक जेडीयू ने भी इस मामले पर चर्चा की बात कही है। समान नागरिक संहिता की पैरवी करने के साथ ही प्रधानमंत्री ने विपक्ष पर मुस्लिम समाज को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने और पसमांदा मुसलमानों के प्रति अपनी सद्भावना को सार्वजनिक किया है। माना जा रहा है कि विपक्षी एकता के कारण जो मुस्लिम वोट एकमुश्त उसके पक्ष में जाता दिख रहा था, वो अब प्रधानमंत्री के इस संवेदनशील तरीके से उनके अधिकारों की वकालत करने के कारण विपक्ष की उम्मीदों को झटका भी दे सकता है। यही समान नागरिक संहिता वाले तीर का दूसरा निशाना है।
पसमांदा मुसलमानों में दलित और पिछड़े समाज के मुसलमान आते हैं और ये वर्ग कुल मुस्लिम आबादी में 85 फीसद भागीदारी रखता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के साथ झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम में मुस्लिम मतदाता अच्छी तादाद में हैं। लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 190 सीटें इन पांच राज्यों से ही आती हैं। उत्तर प्रदेश की कुल 80 में से 65 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम मतदाताओं की तादाद करीब 30 फीसदी है। इसी तरह बिहार की 40 में से करीब 15 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की तादाद 15 से 70 फीसदी के बीच है। इसी तरह पश्चिम बंगाल में 42 और झारखंड एवं असम की 14-14 सीटों में से कई पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। विपक्षी एकता की कोशिशों को प्रधानमंत्री ने पहली बार आड़े हाथों नहीं लिया है। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले साल 2019 में कोलकाता में भी विपक्ष इसी तरह एक मंच पर दिखा था।
तब प्रधानमंत्री ने इसे भ्रष्टाचार, घोटालों, नकारात्मकता और अस्थिरता का गठबंधन बनाने के लिए परिवारवादी और भ्रष्ट लोगों का एकजुट होना बताया था। इसी साल अप्रैल में बीजेपी के खिलाफ एक मंच पर साथ आने की विपक्ष की कोशिशों को वो ‘बादशाही मानसिकता’ बता चुके हैं। प्रधानमंत्री के इस नए और जोरदार हमले के अलावा भी विपक्षी एकता की राह में कई कांटे हैं जो खुद इस गठबंधन में शामिल हो रहे दलों ने बोए हैं। विपक्ष की धारणा है कि अगर पटना में मौजूद 15 दल एक साथ आते हैं, तो 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए गंभीर चुनौती पेश कर सकते हैं। तर्क यह दिया गया है कि साल 2019 में बीजेपी को 37.6 प्रतिशत वोट मिले और सभी पंद्रह राजनीतिक दलों का संयुक्त वोट शेयर उससे कुछ ही कम 37.3 प्रतिशत रहा था। साधारण गणित के हिसाब से तो यह साबित किया जा सकता है कि एकजुट विपक्ष बीजेपी को चुनौती देने में सक्षम होगा लेकिन भारत में जहां आम चुनाव अपने आप में एक खास तरीके का भावनात्मक मुद्दा बन जाता है, वहां गणित का जोड़-घटाव काम नहीं आता।
पटना में काफी अच्छी शुरुआत के बावजूद विपक्षी पार्टियों के बीच कई पेचीदा मुद्दे अनसुलझे हैं। अगर इस सवाल को छोड़ भी दिया जाए कि बीजेपी के खिलाफ इस एकजुट विपक्ष का चेहरा कौन होगा, तो भी इन पार्टियों के बीच सीट-बंटवारे की व्यवस्था तैयार करना आसान नहीं होगा। भले ही कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दल पटना सम्मेलन में शामिल हुए, लेकिन पश्चिम बंगाल में तीनों के रिश्ते कैसे हैं ये बताने की जरूरत नहीं। कांग्रेस और लेफ्ट के बीच गठबंधन होने के बाद से तो ये रिश्ते और गर्त में चले गए हैं। लेकिन बंगाल में बीजेपी को बढ़ने से रोकने के लिए तीनों का साथ आना जरूरी है। दिल्ली-पंजाब में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी और तेलंगाना में कांग्रेस-बीआरएस का यही हाल है। उत्तर प्रदेश का हाल तो और भी अजीब है जहां समाजवादी पार्टी और बीएसपी कांग्रेस के साथ अपनी सियासी जमीन साझा करने को तैयार नहीं है।
हालांकि जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी का दावा है कि 450 सीटों पर बीजेपी के एक उम्मीदवार के मुकाबले विपक्ष के एक उम्मीदवार को उतारने पर रणनीति बन चुकी है और उनके अनुसार पश्चिम बंगाल में टीएमसी और कांग्रेस का और उत्तर प्रदेश में एसपी और कांग्रेस का गठबंधन लगभग तय है। अगर ये दावा वाकई जमीन पर उतरता है तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। हालांकि इस बीच कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक को जीतकर जरूर कुछ चमत्कारिक काम किया है लेकिन उसकी इस जीत ने भी विपक्षी गठबंधन के समीकरण बिगाड़ दिए हैं। इन चुनावों से पहले कांग्रेस को चुका हुआ मानकर बाकी दल उसकी कीमत पर अपनी सियासी किस्मत चमकाने के फेर में जुटे थे। मगर हिमाचल-कर्नाटक जीतने के बाद कांग्रेस अब अपनी शर्तों पर मोल-भाव कर रही है। उसे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के अलावा अब तेलंगाना में भी उम्मीदें दिखने लगी हैं।
कांग्रेस अगर इनमें से दो राज्य जीतने में भी कामयाब हो जाती है तो विपक्ष में उसका दबदबा और बढ़ जाएगा। इस लिहाज से तेलंगाना का चुनाव विपक्षी एकता के लिहाज से बेहद दिलचस्प हो गया है क्योंकि यह राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की लोकप्रियता का फैसला करने के साथ ही विपक्ष में उनकी हैसियत भी तय कर देगा। ऐसे में 2024 की लड़ाई में से 14 जुलाई अचानक से अहम तारीख बन गई है। समान नागरिक संहिता को लेकर विधि आयोग ने देश की आम जनता से जो राय मांगी है उसकी समय सीमा 14 जुलाई को पूरी हो रही है। विपक्षी गठबंधन की शिमला में 10-12 जुलाई को प्रस्तावित अगली बैठक भी टलकर अब बेंगलुरु में 13-14 जुलाई को तय हुई है। तो तारीख का ये खेल क्या महज एक संयोग है या इसमें भी सियासी समीकरण का कोई योग है?