Karwa Chauth Vrat Katha: इस कथा के बिना अधूरा है करवा चौथ का व्रत, जानिए मां करवा की कहानी

Shubham Tiwari
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Sub Editor The Printlines (Part of Bharat Express News Network)
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Karwa Chauth Vrat Katha: कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चुतर्थी तिथि को रह साल करवा चौथा का पर्व मनाया जाता है. इस पर्व पर सुहागिन स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु और सुखमय वैवाहिक जीवन जीने के लिए कठिन निर्जला व्रत रखती हैं. इस साल करवा चौथा का व्रत कल यानी 1 नवंबर दिन बुधवार को है. इस व्रत के दौरान माताएं बहनें अपने करवा चौथ व्रत की कथा पढ़तीं हैं. ज्योतिष की मानें तो करवा चौथ व्रत में इन कथाओं को सुने या पढ़े बगैर व्रत अधूरा रह जाता है. बता दें कि करवा चौथ की तीन कथाएं प्रचलित हैं, जिसे पढ़ने के बाद व्रत पूर्ण माना जाता है. आइए जानते हैं करवा चौथ व्रत की इन तीनों पौराणिक कथा के बारे में…

करवा चौथ की पहली कथा!
पुराणों के अनुसार, करवा नाम की एक पतिव्रता धोबिन अपने पति के साथ तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित गांव में रहती थी. उसका पति बूढ़ा और निर्बल था. एक दिन जब वह नदी के किनारे कपड़े धो रहा था तभी अचानक एक मगरमच्छ धोबी के पैर अपने दांतों में दबाकर यमलोक की ओर ले जाने लगा. वृद्ध घबराई आवाज में करवा..! करवा..! कहकर अपनी पत्नी को पुकारने लगा. पति की पुकार सुनकर धोबिन वहां पहुंची, तो मगरमच्छ उसके पति को यमलोक पहुंचाने ही वाला था. तब करवा ने मगर को कच्चे धागे से बांध दिया और मगरमच्छ को लेकर यमराज के द्वार पहुंची. करवा ने यमराज से अपने पति की रक्षा करने की गुहार लगाई और बोली- हे भगवन्! मगरमच्छ ने मेरे पति के पैर पकड़ लिए हैं. आप मगरमच्छ को इस अपराध के दंड-स्वरूप नरक भेज दें.

करवा की पुकार सुन यमराज ने कहा- अभी मगर की आयु शेष है, मैं उसे अभी यमलोक नहीं भेज सकता. इस पर करवा ने कहा- अगर आपने मेरे पति को बचाने में मेरी सहायता नहीं कि तो मैं आपको श्राप दूंगी और नष्ट कर दूंगी. करवा का साहस देख यमराज भी डर गए और मगर को यमपुरी भेज दिया. साथ ही करवा के पति को दीर्घायु होने का वरदान दिया. मान्यता है कि तब से कार्तिक कृष्ण की चतुर्थी को करवा चौथ व्रत का प्रचलन में आया.

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करवा चौथ व्रत की दूसरी कथा!
एक अन्य प्रचलित कथा के अनुसार, “एक साहूकार के सात लड़के और एक लड़की थी. एक बार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को सेठानी सहित उसकी सातों बहुएं और उसकी बेटी ने भी करवा चौथ का व्रत रखा. रात्रि के समय जब साहूकार के सभी लड़के भोजन करने बैठे तो उन्होंने अपनी बहन से भी भोजन कर लेने को कहा. इस पर बहन ने कहा- भाई, अभी चांद नहीं निकला है. चांद के निकलने पर उसे अर्घ्य देकर ही मैं आज भोजन करूंगी.

साहूकार के बेटे अपनी बहन से बहुत प्रेम करते थे, उन्हें अपनी बहन का भूख से व्याकुल चेहरा देख बेहद दुख हुआ. साहूकार के बेटे नगर के बाहर चले गए और वहां एक पेड़ पर चढ़ कर अग्नि जला दी. घर वापस आकर उन्होंने अपनी बहन से कहा- देखो बहन, चांद निकल आया है. अब तुम उन्हें अर्घ्य देकर भोजन ग्रहण करो. साहूकार की बेटी ने अपनी भाभियों से कहा- देखो, चांद निकल आया है, तुम लोग भी अर्घ्य देकर भोजन कर लो. ननद की बात सुनकर भाभियों ने कहा- बहन अभी चांद नहीं निकला है, तुम्हारे भाई धोखे से अग्नि जलाकर उसके प्रकाश को चांद के रूप में तुम्हें दिखा रहे हैं.

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साहूकार की बेटी अपनी भाभियों की बात को अनसुनी करते हुए भाइयों द्वारा दिखाए गए चांद को अर्घ्य देकर भोजन कर लिया. इस प्रकार करवा चौथ का व्रत भंग करने के कारण विघ्नहर्ता भगवान श्री गणेश साहूकार की लड़की से नाराज हो गए. गणेश जी की अप्रसन्नता के कारण उस लड़की का पति बीमार पड़ गया और घर में बचा हुआ सारा धन उसकी बीमारी में लग गया. साहूकार की लड़की को जब अपने किए हुए दोषों का पता लगा तो उसे बहुत पश्चाताप हुआ. उसने गणेश जी से क्षमा प्रार्थना की और विधि-विधान पूर्वक चतुर्थी का व्रत शुरू कर दिया. उसने उपस्थित सभी लोगों का श्रद्धानुसार आदर किया और उनसे आशीर्वाद ग्रहण किया. इस प्रकार उस लड़की की श्रद्धा-भक्ति को देखकर गणपति उसपर प्रसन्न हुए और उसके पति को जीवनदान दिया. उसे सभी प्रकार के रोगों से मुक्त कर धन, संपत्ति और वैभव से युक्त कर दिया.

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करवा चौथ व्रत की तीसरी कथा
एक अन्य प्रचलित कथा के अनुसार, “एक बार अर्जुन नीलगिरि पर तपस्या करने गए. द्रौपदी ने सोचा कि यहां हर समय अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाएं आती रहती हैं. उनके शमन के लिए अर्जुन तो यहां हैं नहीं, इसलिए कोई उपाय करना चाहिए. यह सोचकर उन्होंने भगवान श्री कृष्ण का ध्यान किया. भगवान वहां उपस्थित हुए तो द्रौपदी ने अपने कष्टों के निवारण के लिए कोई उपाय बताने को कहा. इस पर श्रीकृष्ण बोले- एक बार पार्वती जी ने भी शिव जी से यही प्रश्न किया था तो उन्होंने कहा था कि करवाचौथ का व्रत गृहस्थी में आने वाली छोटी- मोटी विघ्न-बाधाओं को दूर करने वाला है. यह पित्त प्रकोप को भी दूर करता है. इस पर श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को एक कथा सुनाई, जो इस प्रकार है-

प्राचीनकाल में एक धर्मपरायण ब्राह्मण के सात पुत्र तथा एक पुत्री थी. बड़ी होने पर पुत्री का विवाह कर दिया गया. कार्तिक की चतुर्थी को कन्या ने करवा चौथ का व्रत रखा. सात भाइयों की लाड़ली बहन को चंद्रोदय से पहले ही भूख सताने लगी. उसका फूल सा चेहरा मुरझा गया. भाइयों के लिए बहन की यह वेदना असहनीय थी. अत: वे कुछ उपाय सोचने लगे. उन्होंने बहन से चंद्रोदय से पहले ही भोजन करने को कहा, पर बहन न मानी. तब भाइयों ने स्नेहवश पीपल के वृक्ष की आड़ में प्रकाश करके कहा- देखो ! चंद्रोदय हो गया. उठो, अर्ध्य देकर भोजन करो. बहन उठी और चंद्रमा को अर्ध्य देकर भोजन कर लिया. भोजन करते ही उसका पति मर गया. वह रोने चिल्लाने लगी. दैवयोग से इन्द्राणी देवदासियों के साथ वहां से जा रही थीं. रोने की आवाज़ सुन वे वहां गईं और उससे रोने का कारण पूछा.

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(Disclaimer: इस लेख में दी गई सामान्य जानकारियों और सदियों से चली आ रही प्रचलित मान्यताओं पर आधारित हैं. The Printlines इसकी पुष्टि नहीं करता है.)

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