क्या म्यांमार में एक बार फिर से होगा तख्तापलट? एकजुट हो रहे तीन धर्मों के लोग

Aarti Kushwaha
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Reporter The Printlines (Part of Bharat Express News Network)
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Myanmar: म्यांमार में चीन समर्थित सैन्य सरकार की जल्‍द ही टेंशन बढ़ने के संकेत नजर आ रहे है. दरअसल, बीते कुछ दिनों से देश में सैन्‍य शासन के खिलाफ ईसाई और बौद्ध-प्रभुत्व वाले विद्रोही समूह- करेन नेशनल यूनियन (KNU) का संषर्घ जारी है, जिसमें अब मुस्लिम विद्रोही गुट ‘मुस्लिम कंपनी’ भी शामिल हो गई है.

बता दें कि आधिकारिक तौर पर KNU में ब्रिगेड 4 की तीसरी कंपनी के नाम से जानी जाने वाली मुस्लिम कंपनी के 130 सैनिक देश के सैन्य शासन के खिलाफ लड़ रहे हजारों सैनिकों का एक छोटा सा हिस्सा है.

तख्तापलट के बाद से सैन्य सरकार

दरअसल, साल 2021 में म्यांमार की सेना ने लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को उखाड़ फेंका, जिससे एक दशक की प्रगति नष्ट हो गई. इसके बाद से ही विद्रोही गुटों द्वारा बढ़ते विद्रोह को नाकाम करने के लिए सेना नागरिकों, स्कूलों और चर्चों पर हर रोज बम बरसा रही है, जिससे अबतक हजारों लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि करीब 25 लाख लोगों को अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है.

मुस्‍लमानों पर होता रहेगा अत्‍याचार

कहा जा रहा है कि म्यांमार की सैन्य सरकार ने ऐसी चुनौती का सामना कभी नहीं किया था. इसी बीच मुस्लिम कंपनी के नेता ईशर ने कहा के उन्‍हें उम्मीद है कि सैन्य-विरोधी ताकतों के भीतर विविधता को स्वीकार करने से सांस्कृतिक और क्षेत्रीय तनाव कम करने में मदद मिलेगी, जो पहले म्यांमार में संघर्ष का कारण बने थे. हालांकि उन्‍होंने ये भी कहा कि जब तक देश की सत्‍ता पर सेना का कब्‍जा र‍हेगा तब तक मुस्‍लमानों पर अत्‍याचार होता रहेगा.

म्यामांर में सैन्य सरकार का इतिहास

आपको बता दें कि म्यांमार में एक लंबे समय तक सेना का शासन रहा है. साल 1962 से लेकर 2011 तक देश में ‘मिलिट्री जनता’ की तानाशाही सरकार रही है. जबकि साल 2010 में म्यांमार में आम चुनाव हुए जिसके बाद 2011 में म्यांमार में नागरिक द्वारा चुनी गई सरकार बनी. लेकिन इस सरकार पर भी सेना का ही प्रभाव रहा.

म्यांमार की सेना लोगों के लिए अभिशाप

ऐसे में विद्रोही संगठनों का कहना है कि म्‍यांमार में सैन्य सरकार की तरफ से किए जा रहे अत्याचारों ने कई परिवारों को तबाह कर दिया है, जिसके बाद से म्यांमार की सेना सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्य जातीय अल्पसंख्यकों और अधिकांश आबादी के लिए अभिशाप बन गई है. ऐसे में वो अब इसे हटाकर ही दम लेंगे.

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