Study In Kota: भारत में अपनी ‘शानदार’ पढ़ाई के लिए कोटा (kota) एक खास पहचान रखता है. लोग अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए वहां भेजते हैं, ऐसा कहा जाता है कि कोटा में माहौल मिलता है और हर तरफ पढ़ाई होने की बात से पढ़ाई में मन लगा रहता है. लाखों बच्चे यहां डॉक्टर और इंजीनियर बनने का सपना अपनी आंखों में सजाकर आते हैं और उन्हें लगता है कि कोटा उनके सपनों को उड़ान देगा. मगर कहीं यही पढ़ाई का माहौल बच्चों को अपनी जान लेने पर मजबूर तो नहीं कर रहा है? ऐसा इसलिए क्योंकि इस साल अब तक 21 छात्रों ने आत्महत्या की है.
माहौल पढ़ाई का या सुसाइड का?
ये बात सच है कि कोटा 8वीं पास, 10वीं पास, 12वीं पास बच्चों को माहौल तो देता है, लेकिन पढ़ाई का या फिर मजबूर होकर खुदकुशी को बढ़ावा देने का. बढ़ते सुसाइड के बीच कोटा इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है. दरअसल, यहां की हर कोचिंग, इंस्टीट्यूट का फोकस केवल टॉपर्स के बड़े-बड़े होर्डिंग में नाम शामिल करवाने पर ही है. इसी माहौल के कारण जो बच्चे अपना नाम टॉपर्स लिस्ट में शामिल नहीं कर पाते, वे अपना नाम सुसाइड से मर जाने वाले स्टूडेंट की लिस्ट में शामिल करने पर मजबूर हो जाते हैं.
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कैसा है कोटा का माहौल?
अगर आप कोटा में कुछ दिन गुजारते हैं तो आपको हर जगह केवल टॉपर्स का ही बखान सुनने को मिलेगा. वहां आपका स्वागत ही टॉपर्स के हॉर्डिंग्स करते हैं. वहां का माहौल देखकर ऐसा लगेगा कि अगर कोटा में सर्वाइव करना है तो टॉपर्स बनना जरुरी है. वहीं जिन बच्चों को कोचिंग सेंटर, दोस्त और घरवालों का साथ नहीं मिलता है, तो वो अपनी जिंदगी से जंग हार बैठते हैं. कोचिंग सेंटर में बच्चों की रैंक या नंबर के हिसाब से बैच हैं. यहां उन बच्चों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है जो टॉपर्स हैं या अचीवर्स हैं. इसी बोझ के नीचे कुछ बच्चे संतुष्ट हो जाते हैं तो वहीं कुछ उसका अंत जान देने से पूरा करते हैं. यही वजह है कि कोटा बच्चों को ये कदम उठाने पर मजबूर कर रहा है.
एक्सपर्ट्स क्या कहते हैं?
कोटा में पढ़ाई कर रहे बच्चों की मेंटल कंडीशन को लेकर साइकोलॉजिस्ट गौरव वर्मा ने एक साक्षात्कार में कहा कि, ‘कोटा में जो हर तरफ विज्ञापन लगे हैं, वो कहीं ना कहीं बच्चों के दिमाग पर असर डालते हैं. दरअसल, यहां आने वाले बच्चे काफी छोटे होते हैं तो वो वहां के प्रेशर से आसानी से डील नहीं कर पाते हैं. एक तो यहां आने वाले बच्चे किसी ना किसी मायने में किसी से पीछे होते हैं, जो लोग 12वीं में आते हैं तो पता चलता है कि लोग 3 साल पहले से ही तैयारी कर रहे हैं और वो खुद को पीछे पाते हैं, इस वजह से प्रेशर बढ़ता जाता हैं.’
उन्होंने कहा कि इस मेंटल प्रेशर को कम करने के लिए हर तरफ काम होना जरूरी है. उन्होंने बताया, ‘कोचिंग सेंटर, पैरेंट्स, सरकार सभी को इस पर काम करने की जरुरत है. कोचिंग सेंटर्स और पैरेंट्स को बच्चों को ये विश्वास दिलाना होगा कि सिर्फ एक कॉलेज या एक प्रोफेशन ही भविष्य नहीं हो सकता है. इसके अलावा भी कई ऑप्शन हैं. घर वालों को भी बच्चों को बताना चाहिए कि वो पढ़ें, लेकिन टेंशन फ्री होकर. कोचिंग सेंटर्स को भी हर हफ्ते, हर दिन, हर महीने के हिसाब से कुछ एक्टिविटी करवानी चाहिए, जिससे उनका प्रेशर कम हो. सरकार को भी कोटा में अलग-अलग प्रोग्राम के जरिए बच्चों के स्ट्रेस कम करने पर काम करना चाहिए. इसके अलावा साइकोलॉजिस्ट आदि की संख्या ज्यादा होनी चाहिए ताकि बच्चों को अच्छे से काउंसलिंग मिल सके.’
बच्चे भी यही मानते हैं
कोटा में पढ़ने वाले बच्चों का भी यही मानना है कि, कोचिंग वालों का इस तरह का भेदभाव और टॉपर्स का माहौल उनके दिमाग पर असर डालता है. हर तरफ टॉपर्स की ही चर्चा होती है और सभी चाहते हैं कि उनका भी नाम लीग में शामिल हो. वह इस प्रेशर मे आकर दिन-रात पढ़ाई करते हैं और कामयाब ना होने पर परेशानी बढ़ने लगती है. जब इस वक्त उन्हें घरवाले या अन्य लोगों से सहारा नहीं मिल पाता है, तो कई बच्चे गलत कदम उठा लेते हैं.